Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
प्रयोग नहीं किया गया है। यहां उसका स्वल्प अर्थ में प्रयोग हुआ है । अतः अचेलक शब्द का अर्थ बिलकुल नग्न नहीं, प्रत्युत स्वल्प वस्त्र रखना होता है । वृतिकार ने भी यही अर्थ स्वीकार किया है- 'अचेल - अल्पचेलोजिनकल्पिको वा ।'
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‘ओमोयरियाए संचिक्खइ' का अर्थ है - साधु को औनोदर्य तप- अल्पाहार करना चाहिए। अधिक आहार करने से शरीर में आलस्य आता है, जिसके कारण साधक ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की भली-भांति आराधना नहीं कर सकता । अतः रत्नत्रय की साधना के लिए साधक को शुद्ध एषणिक एवं सात्त्विक आहार भी भूख से कम खाना चाहिए ।
साधना के विषय में कुछ विशेष बातें बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - चिच्चा सव्वं विसुत्तियं फासे समियदंसणे, एए भो ! गिणा वुत्ता जे लोगंसि अणागमणधम्मिणो आणाए मामगं धम्मं एस उत्तरवाए इह माणवाणं वियाहिए, इत्थावरए तं झोसमाणेआयाणिज्जं परिन्नाय परियाएण विगिंचs, इह एगेसिं एगचरिया होइ तत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धेसणाए सव्वेसणाए से मेहावी परिव्वए सुभि अदुवा दुभं अदुवा तथ भेरवा पाणा पाणे किलेसंति ते फासे पुट्ठो धीरे अहियासिज्जासि तिबेमि ॥181॥
छाया - त्यक्त्वा सर्वां विस्रेतसिकां स्पर्शान् समितदर्शनः भो ! एते नग्ना, उक्ताः ये लोके अनागमनधर्माणः आज्ञया मामकं धर्मम् एष उतर वादः इह्न मा-नवानां व्याख्यातः अत्रोपरतः तज्झोषयन् आदानीयं परिज्ञाय पर्यायेण विवेचयति इह एकेषां एकचर्या भवति तत्र इतरे इतरेषु कुलेषु शुद्धैषणया सर्वेषणया स मेधावी, परिव्रजेत् सुरभिः अथवा दुरभिः अथवा भैरवा प्राणाः (प्राणिनः) प्राणिनः क्लेशयन्ति, तान् स्पर्शान् स्पृष्टः धीरः अति सहस्व? इति ब्रवीमि ।
पदार्थ-चिच्चा-छोड़कर। सव्वं - सब । वित्तियं - परीषहों के सहन करने . की शंका को । फासे - परीषहों के स्पर्शो - परीषहजन्य कष्टों को सहन करे । समियदंसणे-समित दर्शन, अर्थात् जो सम्यग् दृष्टि हैं, वह सम्यक् प्रकार से