Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
I
पदार्थ - अभिभूय - परीषहों को जीतकर । अदक्खू - चारों घातिक कर्मों को क्षय करके तत्त्व को देखता है, और । अणभिभूए - अनुकल और प्रतिकूल परीषहों के आने पर भी पराभूत नहीं होता । निरालंबणयाए - माता-पिता आदि के आलम्बन से रहित हो कर । पभू-संयम पालन में समर्थ है । जे - जो । महं - महापुरुष - लघुकर्म वाला है, उसका। अबहिमणे - मन तीर्थंकर भगवान की आज्ञा से बाहर नहीं जाता है। पवाएण-आचार्य परम्परा से । पवायं - प्राप्त सर्वज्ञ उपदेश को । सहसंमइयाएसन्मति से या। परवागरणेणं - तीर्थंकर आदि के उपदेश से, या । अन्नेसिं अन्तिए - अन्य आचार्य के सान्निध्य से । सुच्चा - सुनकर । जाणिज्जा–जाने, अर्थात् पदार्थों के यथार्थ स्वरूप से परिज्ञात होवे ।
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मूलार्थ - जो साधक परीषहों पर विजय प्राप्त करके तत्त्व का द्रष्टा होता है और माता-पिता एवं परिजनों के आलम्बन से रहित होकर संयम पालन में समर्थ है, वह भगवान की आज्ञा से बाहर नहीं होता । आचार्य परंपरा से सर्वज्ञ के सिद्धांत को जानकर और सर्वज्ञ के उपदेश से अन्य मत की परीक्षा करके, सन्मति-शुद्ध एवं निष्पक्ष बुद्धि से, तीर्थंकरों के उपदेश से या आचार्य के सान्निध्य से पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में आध्यात्मिक विकास का मार्ग बताते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों से घबराता नहीं है, वही आत्म अभ्युदय के पथ पर बढ़ सकता है। परीषहों पर विजय प्राप्त करने के लिए साहस, शक्ति एवं श्रद्धानिष्ठा का होना अनिवार्य है । जिस व्यक्ति को तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान है एवं उन पर पूर्ण विश्वास है, वही व्यक्ति कठिनाई के समय भी अपने संयम मार्ग से विचलित नहीं होता और माता-पिता एवं अन्य परिजनों के आलम्बन की भी आकांक्षा नहीं रखता, क्योंकि वह जानता है कि उनका जीवन आरंभमय है । अतः उनके आश्रय में जाने का अर्थ है- आरंभ-समारंभ को बढ़ावा देना और इस प्रवृत्ति से पाप कर्म का बन्ध होता है तथा संसार परिभ्रमण बढ़ता है । इस बात को जानने वाला एवं उस पर श्रद्धा-निष्ठा रखने वाला व्यक्ति सर्वज्ञ प्रभु की आज्ञा का परिपालन कर सकता है। क्योंकि सर्वज्ञ के वचनों में परस्पर विरोध नहीं होता और वे प्राणिजगत के हित को