Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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पंचम अध्ययन, उद्देशक 3
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मौन-संयमानुष्टान है। तं संमंति-वह सम्यक्त्व है। पासहा-यह देखो-विचार करो। नइमं सक्कं सिढिलेहि-शिथिल पुरुष इसका पालन करने में समर्थ नहीं हैं। अदिज्जमाणेहिं-पुत्रादि के स्नेह से आई चित्त वाले अर्थात् जो पुत्रादि के स्नेह में खचित हैं वे इसका पालन नहीं कर सकते। गुणासाएहिं-शब्दादि गुणों का आस्वादन करने वाले। वंकसमायारेहि-कपटाचारी-कपट करने वाले। पमत्तेहिंप्रमादी-प्रमाद का सेवन करने वाले। गारभावसतेहिं-घरों पर ममत्व रखने वाले, इस सम्यक्त्वादि रत्नत्रय का पालन नहीं कर सकते अतः । मुणी मोणं समायाएमुनि-मनन शील आत्मा मौन-मुनि भाव को ग्रहण करके। सरीरगं-कार्मणं वा औदारिक शरीर को। धुणे-धुनने-कृश करने का यत्न करे। पंतं-प्रान्ताहार अथवा वल्ल चणकादिरूप अल्पाहार । लूह-रूक्षाहार को जो। सेवंति-सेवन करते हैं। वीरा-वीरपुरुष-जो कर्म विदारण में समर्थ हैं। सम्मत्तदसिणो-सम्यक्त्वदर्शी है वा समत्वदर्शी हैं। एस-यह उक्त गुणों से युक्त। मुणी-मुनि। ओहंतरे-भवौघसंसार को तर जाता है। तिण्णे-तथा वह मुनि संसार रूप समुद्र को तर गया। मुत्ते-बन्धन से मुक्त हुआ। विरए-सावद्यानुष्ठान से विरत हुआ। वियाहिए-इस प्रकार से कहा गया है। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-वह संयम धनवाला साधु, सर्वप्रकार से ज्ञान सम्पन्न, अपने आत्मा के द्वारा किसी प्रकार के अकरणीय कर्म की गवेषणा नहीं करता, अर्थात् किसी प्रकार का अनुचित कर्म नहीं करता। गुरु कहते हैं, हे शिष्यो! तुम देखो! जो सम्यग्दर्शन को देखता है, वह मौन-मुनिभाव-साधुत्व को देखता है और जो मुनि भाव को देखता है, वह सम्यग्ज्ञान को देखता है। कातर-शिथिल भावों वाले, पुत्रादि से स्नेह युक्त, शब्दादि गुणों का आस्वादन करने वाले वक्रसमाचारी-मायावी और घरों में ममत्व रखने वाले मठाधीश व्यक्ति मुनिवृत्ति की आराधना नहीं कर सकते, किन्तु जो वीर आत्माएं हैं, वे ही मुनि वृत्ति को धारण करके कार्मण, औदारिक शरीर को धुनने में समर्थ हो सकते हैं। वे प्रान्त चणकादि, और रूक्ष आहार का सेवन करते हैं। इतना ही नहीं, अपितु सम्यक्त्व या समत्व को धारण करने वाले मुनि संसार-समुद्र को तैर जाते हैं। सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र सम्पन्न मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत, इस प्रकार से वर्णन किया गया है।