Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
के लिए रात-दिन सावध कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं, हिंसा आदि दोषों का सेवन करते हैं। इससे पाप कर्मों का बन्ध करते हैं और परिणामस्वरूप संसार में परिभ्रमण करते हैं और अनेक दुःखों का संवेदन करते हैं।
विवेकशील पुरुष इस बात को जानता है। उसकी दृष्टि स्वच्छ और विस्तृत होती है। वह अपने ही स्वार्थ एवं हित को नहीं देखता। वह सब प्राणियों का हित चाहता है। वह जानता है कि संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। इसलिए वह सब के प्रति समभाव रखता है। किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुँचाता। इस तरह वह अपनी निष्पापमय प्रवृत्ति से प्रत्येक प्राणी की रक्षा करता हुआ कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावकम्मं तं नो अन्नेसी, जं संमंति पासहा तं मोणंति पासहा जं मोणंति पासहा तं संमंति पासहा, न इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दज्जिमाणेहिं गुणसाएहिं बंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं, मुणी मोणं समायाए धुरो कम्म सरीरगं, पंतं लूहं सेवति वीरा सम्मत्तदंसिणो एस ओहंतरे मुणी, तिण्णे मुत्तेविरए वियाहिए त्तिबेमि॥156॥ .
छाया-सः वसुमान् सर्व समन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना अकरणीयं 'पापकर्म तन्नो अन्वेषयति यत् सम्यगिति-सम्यक्त्वमिति-सम्यक् इति पश्यतः तन्मौनमिति पश्यतः यन्मौनमिति पश्यतः तत् सम्यगिति पश्यत नैतत् शक्यं शिथिलैः आद्री क्रियमाणैः गुणास्वादैः वक्रसमाचारैः प्रमत्तैः अगारमावसदभिः मुनिर्मोनं समादाय धनीयात् कर्म शरीरकं प्रान्त रूक्षं सेवन्ते वीराः सम्यक्त्वदर्शिनः एष ओघन्तरः मुनिः तीर्णः मुक्तः विरतः व्याख्यातः इति ब्रबीमि।
पदार्थ-से-वह। वसुमं-संयमवाला। सव्व-सब। समन्नागयपन्नाणेणंविशिष्ट ज्ञान से युक्त। अप्पाणेणं-आत्मा से। पावकम्म-पापकर्म । अकरिणज्जंअकरणीय है, अर्थात् पापकर्म नहीं करता कारण कि। जं संमंति-जो सम्यक्त्व है वही। मोणंति-मौन-संयमानुष्ठान है। पासहा-यह देखो, विचार करो। जंमोणंति-जो