Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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पंचम अध्ययन, उद्देशक 5
श्रुत सम्पन्न आचार्य के अनुशासन में रहकर अपनी साधना को तेजस्वी बताने वाले शिष्य की कैसी वृत्ति हो, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं-..
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मूलम् - वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहिं, सिया वेगे अणुगच्छंति असिता वेगे अणुगच्छंति, अणुगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणे कहं न निव्विज्जे ? ॥162॥
छाया- विचिकित्सासमापन्नेनात्मना नो लभते समाधिम्, सिताः वा एके अनुगच्छन्ति, असितावा एके अनुगच्छन्ति, अनुगच्छद्भिः अननुगच्छन् कथं न निर्विद्येत् ।
पदार्थ–वितिगिच्छासमावन्नेणं - संशय से युक्त । अप्पाणेणं - आत्मा द्वारा । समाहिं - समाधि को । नो लहइ - प्राप्त नहीं कर सकता । वा - अथवा । एगे - कोई-कोई। सिया- लघुकर्मी जीव पुत्रादि के स्नेह से बद्ध होने पर भी । अणुगच्छंतिआचार्यादि का अनुगमन करते हैं - उनके कथन को स्वीकार करते हैं । वा - अथवा | एगे - कोई-कोई। असिता - जो पुत्रादि के स्नेह से वियुक्त हैं ( साधु हैं वे भी ) । अणुगच्छन्ति - आचार्यादि के वचन को स्वीकार करते हैं । अणुगच्छमाणेहिं - जो आचार्य के आदेशानुसार चलने वाले हैं तथा । अणणुगच्छमाणे - कर्मोदय से जो आचार्यादि के वचनानुसार नहीं चलता, वह । कहं - कैसे । न निव्विज्जे-खेद को प्राप्त नहीं होता? अवश्य होता है।
मूलार्थ - सन्देह युक्त आत्मा समाधि को प्राप्त नहीं कर सकता, कोई-कोई गृहस्थ आचार्य की आज्ञा का पालन करते हैं, तथा कोई-कोई साधु आचार्य की आज्ञानुसार चलते हैं! अर्थात् आचार्य के वचनानुसार चलने से समाधि की प्राप्ति करते हैं, तो फिर जो आचार्य की आज्ञा का पालन नहीं करता, वह संशययुक्त आत्मा खेद को क्यों न प्राप्त होगा ? अर्थात् अवश्य होगा ।
हिन्दी - विवेचन
आगम में आत्मा के विकास की 14 श्रेणियां मानी गई हैं, जिन्हें आगमिक भाषा में गुणस्थान कहते हैं । चतुर्थ गुणस्थान से आत्मा विकास की ओर सन्मुख होता है और 14वें गुणस्थान में पहुंचकर वह अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है । इस तरह