Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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पंचम अध्ययन : लोकसार
चतुर्थ उद्देशक
तृतीय उद्देशक में मुनित्व का वर्णन किया गया है। मुनित्व का सम्यक् आराधन गुरु के सान्निध्य में ही हो सकता है । गुरु आज्ञा से विपरीत चलने वाला व्यक्ति भली-भांति साधुत्व का परिपालन नहीं कर सकता । अतः प्रस्तुत उद्देशक में यह बताया गया है कि गुरु की आज्ञा के बिना एकाकी विचरने वाले साधु के जीवन में कौन-कौन-से अवगुणों की अभिवृद्धि होती है और आज्ञानुसार चलने वाले शिष्य के जीवन में कौन-से गुणों की अभिवृद्धि होती है । स्वच्छन्द एवं आज्ञा में विचरने वाले दोनों साधकों की प्रकृति का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जायं दुप्परिक्कतं भवइ अवियत्तस्स भिक्खुणो ॥ 157 ॥
छाया - ग्रामानुग्रामं दूयमानस्य दुर्यातं दुप्पराक्रान्तं भवति अव्यक्तस्य भिक्षोः ।
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पदार्थ-अवियतस्स-अव्यक्त-अगीतार्थ । भिक्खुणो- भिक्षु को । गामाणुगामं- अकेले एक गांव से दूसरे गांव को । दूइज्जमाणस्स दुज्जायं विचरने की क्रिया सुखप्रद नहीं होती, और । दुप्परिक्कतं - - उसका एकाकी भ्रमण भी उसके चारित्र के पतन का कारण । भवइ - होता है ।
मूलार्थ-अव्यक्त-अगीतार्थ भिक्षु को अकेले एक गांव से दूसरे गांव को विचरना सुखप्रद नहीं होता । इससे उसके चारित्र का पतन होने की संभावना है। हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में अकेले विचरने वाले साधु के जीवन का विश्लेषण किया गया है। इसमें बताया गया है कि जो साधु बिना कारण गुरु की आज्ञा के बिना अकेला विचरता है, उसे अनेक दोष लगने की संभावना है। पहले तो लोगों के मन में अनेक