Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध अजाणओ-अज्ञानी-अतत्त्वदर्शी उपाय को न जानता हुआ। अपासओ-न देखता हुआ गुरु कहते हैं हे शिष्य! एयं-यह एकाकीचर्या । ते-तुझे। मा होउ-मत हो, क्योंकि । एयं-यह। कुसलस्स दंसणं-कुशल अर्थात् श्री वर्द्धमान स्वामी का दर्शन है, अतः। तद्दिट्ठीए-गुरु-आचार्य की दृष्टि से वर्तना चाहिए। तम्मुत्तीए-निर्लोभता से वर्तना चाहिए। तप्पुरक्कारे-प्रत्येक कार्य में गुरु को आगे रखना चाहिए। तस्सन्नी-गुरु पर श्रद्धा रखने वाला। तन्निवेसणे-गुरुकुलवासी होना चाहिए अर्थात् गुरु के पास रहना चाहिए। जयं विहारी-यत्न पूर्वक विचरना चाहिए। चित्त निवाई-गुरुजनों के चित्त के अनुसार वर्तना चाहिए। पंथ निज्झाई-गुरुजनों के कहीं चले जाने पर उनकी ओर ध्यान रखने वाला हो। पलिबाहिरे-गुरुओं की आज्ञा के बाहर कभी न हो, यदि गुरु ने किसी स्थान पर भेजा हो तो। पाणे-प्राणियों को। पासिय-देखकर। गच्छिन्जा-जावे-यत्नपूर्वक गमन करे। .
मूलार्थ-जो मनुष्य गुरुजनों की हित शिक्षा से क्रोधित होते हैं, अहंकार के वश में होकर तथा महामोह के उदय से अज्ञानता में मूर्छित होकर गुरुजनों से पृथक् होकर विचरने लग जाते हैं, ऐसा करने से उन्हें उपसर्गादि जनित बार-बार अनेक प्रकार की दुरतिक्रम बाधायें उपस्थित होती हैं! सम्यक् सहन करने के उपाय से अज्ञात और कर्म विपाक के न देखने के कारण उन बाधाओं से अत्यन्त दुःखी होकर वे चारित्र मार्ग से गिर जाते हैं। गुरु कहते हैं हे शिष्य! श्रमण भगवान महावीर स्वामी का यह दर्शन है कि तुम्हारी यह दशा न हो, किन्तु गुरु की दृष्टि से सर्व प्रकार की निर्ममत्ववृत्ति से, प्रत्येक कार्य में गुरुजनों की आज्ञा को सन्मुख रखने से, गुरुओं के पास रहने से, और यत्नपूर्वक विचरने से, गुरुओं के चित्त. की आराधना करनी चाहिए, एवं कहीं पर गए हुए गुरुओं के मार्ग का अवलोकन करना चाहिए, गुरुओं की आज्ञा में रहना चाहिए, यदि गुरु कहीं पर भेजें तो मार्ग में प्राणियों की रक्षा करते हुए चलना चाहिए। हिन्दी-विवेचन
अव्यक्त अवस्था में-श्रुतज्ञान से सम्पन्न न होने के कारण, साधक अपने अन्दर स्थित कषायों को दबा नहीं सकता। कभी परिस्थिति वश उसका क्रोध प्रज्वलित हो उठता है और वह उस स्थिति में अपनी समझ को भी भूल जाता है। कषायों के