Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध सुखावे। अप्पाणं कसेहि-शरीर को कृश करे। अप्पाणं जरेहि-शरीर को जीर्ण करे। जहा-जैसे। जुन्नाइं कट्ठाइं-पुराने काष्ठ को। हव्वावाहो-अग्नि। पमत्थइशीघ्र ही भस्म कर देती है। एवं-इसी प्रकार। अत्तसमाहिए-समाधिस्थ आत्मा। अणिहे-स्नेह-रहित होकर तपरूप अग्नि से कर्मरूप काष्ठ को जलाकर भस्म कर देता है। अतः हे शिष्य! तू। कोहं-क्रोध आदि का। विगिंच-परित्याग करके। अविकंपमाणे-कंप-रहित-निश्चल स्थिर हो।
मूलार्थ-इस जिन शासन में भगवान की आज्ञा के अनुरूप चलने वाला पंडित पुरुष स्नेह-राग रहित होकर अपनी आत्मा के एकत्त्व भाव को समझकर शरीर को सुखा लेता है। अतः हे आर्य! तू तप के द्वारा शरीर कर्मों को कृश एवं जीर्ण करने का प्रयत्न कर। जैसे अग्नि पुराने काष्ठ को तुरन्त जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार स्नेह-राग रहित समाधिस्थ साधक तपरूप अग्नि के द्वारा कर्मरूप काष्ठ को जला देता है। इसलिए हे आर्य तू! क्रोध का परित्याग करके निष्कम्प-स्थिर मन वाला बनने का प्रयत्न कर। हिन्दी-विवेचन
___ संसार में कर्मबन्ध का कारण स्नेह-राग भाव है। स्नेह का अर्थ चिकनाहट भी होता है। इसी कारण तेल को भी स्नेह कहते हैं। हम देखते हैं कि जहां स्निग्धता होती है, वहां मैल जल्दी जम जाता है। इसी प्रकार जिस आत्मा में राम भाव रहता है, उससे ही कर्म आकर चिपकते हैं, राग-भाव से रहित आत्मा के कर्म-बन्ध नहीं होता। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि पंडित पुरुष राग-रहित होकर आत्मा के एकत्व स्वरूप का चिन्तन करके शरीर, अर्थात् कर्मों को पतला कर देता है और एक दिन निष्कर्म हो जाता है। ___ 'अणिहे' शब्द का संस्कृत में ‘अनिहत' रूप भी बनता है। इसका अर्थ होता है-जो विषय-कषाय आदि भाव शत्रुओं से अभिहत न हो। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वीतराग आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला साधक आन्तरिक शत्रुओं से परास्त नहीं होता है। ऐसा साधक ही स्नेह-राग भाव से निवृत्त होकर आत्मसमाधि में संलग्न हो सकता है। इसलिए साधक को राग-भाव का त्याग करके तप के द्वारा शरीर को कृश एवं जीर्ण बनाना चाहिए, क्योंकि प्रज्वलित अग्नि में जीर्ण काष्ठ जल्दी ही जल