Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
पंचम अध्ययन, उद्देशक 2
एस - यह । मग्गे - मार्ग । आरिएहिं - आर्यों-तीर्थंकरों द्वारा । पवेइए - प्रवेदितप्रतिपादित है। उट्ठिए-धर्म ग्रहण करने में उद्यत हुए । नोपमायए - प्रमाद न करे, किन्तु | जाणित्तु- - जान कर । दुक्ख - दुःख और उसके कारण कर्म तथा । पत्तेयंप्रत्येक-प्राणी की। सायं - साता को । इह - इस संसार में । पुढो - अलग-अलग । छंदा-अभिप्राय है। माणवा - नाना प्रकार के अध्यवसाय वाले मनुष्य हैं । पुढो - पृथक् पृथक् । दुक्ख - दुःख प्राणियों का । पवेइयं - कथन किया गया है। से - वह । अविहिंसमाणे-हिंसा न करता हुआ । अणवयमाणे - असत्य न बोलता हुआ-हे शिष्य तू अनारम्भ जीवी को देख । फासे - शीतोष्ण स्पर्शो व परीषहों को । पुट्ठो - स्पर्शित हुआ । विपन्न - नाना प्रकार की भावनाओं द्वारा उन कष्टों को सहन करे, किन्तु व्याकुल न होवे ।
581
मूलार्थ - लोक में जितने भी अनारम्भजीवी साधु हैं, गृहस्थों से आहारादि लेकर अनारम्भी जीवन व्यतीत करते हैं, वे सावद्यकर्म से उपरत हैं, पाप कर्म को क्षय करते हुए, साधुमार्ग को ग्रहण करते हैं । हे शिष्य ! तू इस अवसर को देख, जो इस शरीर के स्वरूप को जानता है, वह अवसर का अन्वेषण करने वाला है । यह मार्ग तीर्थंकर या गणधरों द्वारा कथित है। संयम में उद्यत हुए प्राणी को प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख को जानकर प्रमाद नहीं करना चाहिए । जीवों के पृथक्-पृथक् अभिप्राय हैं, पृथक्-पृथक् मानवों के अध्यवसाय हैं, पृथक्-पृथक् प्राणियों का दुःख कथन किया गया है। वह अनारम्भ जीवी किसी की हिंसा न करता हुआ, असत्य न बोलता हुआ, शीतोष्ण परीषहों के स्पर्शित होने पर उन कष्टों को सम्यग् रूप से सहन करता है, किन्तु व्याकुल नहीं होता; क्योंकि वह सम्यग्दर्शन से युक्त है । हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में मुनि जीवन का विश्लेषण किया गया है। मुनि के लिए आगम में बताया गया है कि वह पूर्णतः हिंसा का त्यागी होता है । अतः लोक में जितने भी प्राणी हैं, उनमें मुनि का आचार विशिष्ट है, क्योंकि असंयत प्राणियों का जीवन आरम्भ से युक्त होता है, परन्तु मुनि का जीवन अनारम्भी - आरम्भ से रहित होता है । वह किसी भी स्थिति - परिस्थिति में आरम्भ - हिंसा का सेवन नहीं करता। उसके तीन करण और तीन योग से हिंसा करने का त्याग होता है। वह मन-वचन और काय
4: