Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध संयम का पालन करने में अपनी शक्ति का गोपन नहीं करना चाहिए। इसी बात को
और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं__मूलम्-जे पुबुट्ठाई नो पच्छानिवाई, जे पुबुट्ठाई पच्छानिवाई, जे नो पुबुट्ठाई नो पच्छानिवाई, सोऽवि तारिसिए सिया, जे परिन्नाय लोगमन्नेसयंति॥153॥
छाया-यः पूर्वोत्थायी नो पश्यान्निपाती, यः पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती, यो नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती, सोऽपि तादृश एवं स्याद् ये परिज्ञाय लोकमन्वेषयन्ति।
पदार्थ-जे-जो। पुवुट्ठाई-पहले त्याग-वैराग्य भाव से संयम साधना के लिए उद्यत होता है। नो पच्छानिवाई-वह पीछे संयम मार्ग से पतित नहीं होता। जे-जो। पुबुट्ठाई-पहले तो त्याग-वैराग्य से संयम स्वीकार करता है, परन्तु। पच्छानिवाई-पीछे पथ भ्रष्ट हो जाता है। जे-जो। नो पुव्बुढाई-पहले त्याग-वैराग्य से संयम नहीं लेता। नो पच्छानिवाई-पीछे पतित भी नहीं होता। सोऽवि-वह भी। तारिसए-गृहस्थ के तुल्य ही। सिया-है। जे-जो। परिन्नाय-परिज्ञा से जानकर। लोगं-लोक को। अन्नेसयंति-अन्वेषण करते हैं, अर्थात् लोकैषणा में निमग्न हैं, वे भी गृहस्थ के तुल्य हैं।
मूलार्थ-कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जो त्याग-वैराग्य के साथ संयम-साधमा को स्वीकार करते हैं और स्वीकार करने के पश्चात् भी उसी निष्ठा के साथ उसका पालन करते हैं, अर्थात् साधना पथ से च्युत नहीं होते (गणधरवत्), कुछ व्यक्ति पहले तो वैराग्य से दीक्षित होते हैं; परन्तु पीछे से पथ भ्रष्ट हो जाते हैं (नन्दीषण मुनि की तरह)। यहां तीसरे भंग का अभाव होने से उसका उल्लेख नहीं किया है। कुछ व्यक्ति न त्याग-वैराग्य से संयम लेते हैं और न पीछे पतित ही होते हैं। उनमें सम्यक् चारित्र का अभाव होने से उन्हें गृहस्थ तुल्य कहा है। शाक्यादि अन्य मत के साधुओं को भी चौथे भंग में समाविष्ट किया है। कुछ व्यक्ति ज्ञपरिज्ञा से जानकर दीक्षित होने पर भी लोक के आश्रित रहते हैं और लोकैषणा में संलग्न रहते हैं, इसलिए उन्हें गृहस्थ के समान कहा गया है। तात्पर्य यह है कि भाव चारित्र के