Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलार्थ-हे शिष्य! तू इस मनुष्य-जन्म को अल्पायुष्क समझकर इसी जीवन में क्रोध से होने वाले शारीरिक और मानसिक दुःखों को देख! इसके अतिरिक्त क्रोध से उत्पन्न होने वाले आगामी जन्मों के दुःखों को समझ! क्योंकि क्रोध के कारण ही जीव नरकादि योनियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के कष्टों को अनुभव करते हैं। दुःख के वशवर्ती बना हआ यह जीव उनसे बचने के लिए इधर-उधर भागता फिरता है। यह भी तू देख! जो क्रोधादि विकारों एवं पापकर्मों से निवृत्त हो गए हैं
और निदान से रहित हैं, वे ही इच्छा-रहित कहे जाते हैं। अतः विद्वान पुरुष को कभी अपने हृदय में क्रोध को प्रज्वलित नहीं करना चाहिए। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन
जीवन सदा एक-सा नहीं है। जन्म के बाद मृत्यु का आगमन आरम्भ हो जाता है। प्रतिक्षण आयु कम होती रहती है। इस प्रकार मानव-आयुष्य परिमित है। इसलिए साधक को सदा सावधान रहना चाहिए और विवेकपूर्वक संयम का परिपालन करना चाहिए, क्योंकि क्रोध आदि कषायों से विभिन्न दुःख एवं संक्लेश उत्पन्न होते हैं। क्रोध केवल वर्तमान के लिए ही दुःख रूप नहीं है, अपितु भविष्य में भी वह मनुष्य को दुःख के गर्त में गिरा देता है। कषायों के वश मानव नरक आदि योनियों में अनेक दुःखों का संवेदन करता है। इसलिए साधक को दुःख के मूल क्रोध आदि कषायों एवं पापकर्मों से निवृत्त होकर तप आदि साधना में किसी भी प्रकार का निदान-कामना नहीं करनी चाहिए। ____ निष्कर्ष यह निकला कि साधक को शांत एवं निष्पाप जीवन के साथ आकांक्षा का त्याग करना चाहिए। निराकांक्षी साधक ही समस्त कर्मों को क्षय करने में समर्थ होता है और वास्तव में वही महा विद्वान एवं प्रबुद्ध पुरुष है-जो क्रोध को प्रज्वलित नहीं होने देता है। क्रोध एवं कामना-रहित व्यक्ति सदा सुख-शान्ति का अनुभव करता है। उसे कभी भी दुःख का अनुभव नहीं होता। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को कषाय एवं कामना का त्याग कर सदा संयम में संलग्न रहना चाहिए।
'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें।
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥