Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
542
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
आकांक्षा त्याग में बदल गई। कर्मबन्ध का वह स्थान निर्जरा का कारण बन गया। यह सब भावों का चमत्कार है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि कर्मबन्ध एवं निर्जरा में भावों की प्रमुखता है। परन्तु यह कथन निश्चय नय की अपेक्षा से है। व्यवहार नय की अपेक्षा से भावों के साथ स्थान एवं क्रिया का भी मूल्य है। परिणामों की विशुद्ध एवं अशुद्ध धारा को प्रत्येक व्यक्ति देख नहीं सकता। परन्तु अल्प बुद्धि व्यक्ति भी व्यवहार को भली-भांति जान लेता है। भावों के साथ स्थान एवं व्यवहार-शुद्धि को भी भुला नहीं देना चाहिए। क्योंकि धर्मस्थान एवं धर्मनिष्ठ व्यक्तियों की संगति का भी जीवन पर प्रभाव होता ही है। संयति राजा शिकार खेलने गया था और अपने बाण से एक मृग को घायल भी कर दिया था, परंतु वहीं मुनि से बोध पाकर संसार से विरक्त हो गया, मुनि बन गया। इस प्रकार जीवन को मांजने एवं विचारों को नया मोड़ देने में संतों का, शास्त्रों का एवं धर्मस्थानों का महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है। या हम यों कह सकते हैं कि व्यवहार शुद्धि के पथ से हम निश्चय दृष्टि से भी भावों की शुद्धि के सुरम्य स्थल तक पहुंच जाते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'जे आसवा ते परिस्सवा...' इत्यादि पाठ में 'आसवा' से आस्रव स्थान, ‘परिस्सवा' से निर्जरा के स्थान, 'अणासवा' से व्रत विशेष और 'अपरिस्सवा' से कर्मबन्ध के स्थान विशेष समझना चाहिए। .
जीव भावों के द्वारा बन्ध के स्थान को निर्जरा का एवं निर्जरा के स्थान को बन्ध का कारण बना लेता है। आस्रव और निर्जरा के स्थान पृथक्-पृथक् हैं। आस्रव में भी आठों कर्म के आठों स्थान भिन्न हैं और इसी प्रकार आठों कर्मों को रोकने वाले संवर एवं क्षय करने वाले निर्जरा स्थान भी भिन्न-भिन्न हैं। अतः मुमुक्षु पुरुष को आस्रव, संवर एवं निर्जरा के स्वरूप को भली-भांति जानकर भगवान की आज्ञा के अनुसार भावों को विशुद्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
प्रबुद्ध पुरुष भी अपने उपदेश द्वारा आर्त एवं प्रमत्त जीवों को जगाते रहते हैं। वे किस प्रकार का उपदेश देते हैं, इसे बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
1. आचारांग वृत्ति