Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 2
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रहता है, पाप-कार्यों एवं दुष्प्रवृत्तियों में प्रवृत्त रहता है और सत्कार्यों से निवृत्त भी है। तो प्रवृत्ति - निवृत्ति का समन्वय दोनों प्रकार के जीवन में परिलक्षित होता है और यह भी स्पष्ट है कि त्यागप्रधान - निवृत्तिमय जीवन भी प्रवृत्ति के बिना गतिशील नहीं रह सकता, जब तक आत्मा के साथ मन-वचन और काय - शरीर के योगों
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सम्बन्ध जुड़ा हुआ है, तब तक सर्वथा प्रवृत्ति छूट भी नहीं सकती । फिर भी त्याग-निष्ठ और भोगासक्त जीवन में बहुत अन्तर है । दोनों की निवृत्ति - प्रवृत्ति में एकरूपता नहीं है ।
निवृत्तिपरक जीवन में निवृत्ति और त्याग की ही प्रधानता है - सावद्य प्रवृत्ति को तो उसमें जरा भी अवकाश नहीं है। जो योगों की अनिवार्य प्रवृत्ति होती है, उसमें विवेकचक्षु सदा खुले रहते हैं, उनकी प्रत्येक क्रिया संयम को परिपुष्ट करने तथा निर्वाण के निकट पहुंचने के लिए होती है । अतः उनकी प्रवृत्ति में प्रत्येक प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व की सुरक्षा का पूरा-पूरा ध्यान रहता है । वे महापुरुष त्रिकरण और . त्रियोग से किसी भी जीव को पीड़ा एवं कष्ट पहुंचाना नहीं चाहते। दूसरी बात यह हैं कि उनकी हार्दिक भावना समस्त क्रियाओं से निवृत्त होने की रहती है । जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं एवं साध्य को सिद्ध करने के लिए उन्हें प्रवृत्ति करनी पड़ती है । इसलिए वे सदा-सर्वदा इस बात का खयाल रखते हैं कि बिना आवश्यकता के कोई क्रिया या हरकत न की जाए । अतः उनका खाना-पीना, चलना-फिरना, बैठना-उठना, बोलना आदि सब कार्य विवेक, यतना एवं मर्यादा के साथ होते हैं । इस से यह स्पष्ट हो गया कि साधक के जीवन में प्रवृत्ति होती है, परन्तु जीवन में उसका गौण स्थान माना गया है; आवश्यक कार्य में ही प्रवृत्ति करने का आदेश है और वह भी विवेक एवं यतना के साथ करने की आज्ञा है और अन्ततः उसका सर्वथा त्याग करने की बात कही है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि निश्चय दृष्टि से प्रवृत्ति को त्याज्य माना है। इसलिए साधक - अवस्था में अनिवार्यता के कारण संयम - मार्ग में निर्दोष प्रवृत्ति को स्थान होते हुए भी उसके त्याग का लक्ष्य होने के कारण त्याग-प्रधान जीवन को निवृत्तिपरक जीवन ही कहा जाता है। क्योंकि जैन दर्शन का मूल लक्ष्य समस्त कर्मों एवं क्रियाओं से निवृत्त होना है । अतः निवृत्ति के चरम लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सहायकभूत निर्दोष प्रवृत्ति करने वाला साधक ही वास्तव में अनगार है, मुनि