Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अध्यात्मसार: 1
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दृष्टि से सभी तीर्थंकर भगवंतों का अलग-अलग स्मरण करने पर हमारे अंतःकरण में भक्ति जागृत होती है। उपादान की शुद्धि होती है, इन पवित्र नामों के स्मरण से आसपास का वातावरण पावन और पवित्र बनता है। हम पुद्गलों में जी रहे हैं, अतः यह पुद्गल स्वरूप शब्द पवित्र होने पर हमारे शरीर, वचन और मन को भी पवित्र बनाते हैं। सभी तीर्थंकर भगवंतों के अधिष्ठाता देवगण होते हैं। अतः उनका भावपूर्वक स्मरण करने से वे दिव्य शक्तियाँ हमारे मिथ्यात्व का परिहार कर संयम-समाधि और सम्यक्त्व हेतु सहयोग करती हैं।
मूलम्-जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं॥2/1/69
मूलार्थ-प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख को जानकर मुनष्य को अपने ऊपर आए हुए रोगादि कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना चाहिए।
दुःख मृत्यु स्वरूप है। दुःख का संयोग और सुख का वियोग, क्योंकि प्रत्येक प्राणी की अभिलाषा है कि उसे सुख मिले। जब इस अभिलाषा के विपरीत होता है, तब उसे मृत्यु स्वरूप कष्ट प्रतीत होता है।
चैतन्य आनंद रूप है। इसलिए चैतन्य शब्द का प्रयोग हम आनंद के लिए, उत्साह के लिए करते हैं। जब व्यक्ति पूर्णतः निश्चल हो जाता है, तब हम कहते हैं मृत्यु हो गयी। दुःख आंशिक मृत्यु के समान है। आनंद चैतन्य स्वरूप है और सदैव मृत्यु स्वरूप है। ऐसे तो मृत्यु का अर्थ होता है प्राणों का वियोग। यहाँ पर त्राण व शरण की बात की है। वह दुःख की अपेक्षा से न तो वह किसी को दुःख दे सकता है, न वह किसी का दुःख हटा सकता है; क्योंकि बिना ज्ञान दुःख जाता नहीं है। दुःख अज्ञान आश्रित है, आनंद ज्ञान आश्रित है। दोनों ही व्यक्ति एवं परिस्थिति आश्रित नहीं हैं। फिर भी हमें जहाँ से ज्ञान एवं आनंद का रास्ता मिलता है, हम उस निमित्त का उपकार मानते हैं। इसमें हमारी उपकार एवं कृतज्ञता से उपादान शुद्धि होती है
और जहाँ प्राप्त किया वह टिका रहता है। जब व्यक्ति आधि-व्याधि एवं उपाधि में ग्रसित होता है, तब उसे यह देखना चाहिए कि प्रत्येक प्राणी दुःख एवं सुख में पड़ा हुआ है। कोई भी एकान्ततः नित्य सुखी नहीं है। आज सुखी है तो कल दुःखी है। वह सुख भी एक रूप से दुःख रूप ही है। लगता है, सुख लेकिन वह सुख भी हमें