Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
है। इससे यह सिद्ध होता है कि विचारशील एवं विवेकवान व्यक्ति संयम के प्रतिकूल परिस्थितियों एवं वातावरण के उपस्थित होने पर भी अपने ध्येय से विचलित नहीं होता, वह समस्त विकारों पर विजय पा लेता है, इसलिए उसे वीर शब्द से संबोधित किया गया है।
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'वीर' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ यह है- “ विशेषेणेरयति - प्रेरयति अष्ट प्रकारं कर्म्मारिषड्वर्गं वेति वीरः " अर्थात् जो आठ प्रकार के कर्मों को आत्मा से सर्वथा पृथक् करता है अथवा काम-क्रोध आदि छह आंतरिक शत्रुओं को परास्त करता है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि वीर पुरुष ही निर्वाण पद को प्राप्त कर सकता है।
इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - सद्दे फासे अहियासमाणे, निव्विंद नंदिं इह जीवियस्स । मुणी मोणं समायाय, धुणे कम्मसरीरगं ॥2॥
पंतं लूहं सेवंति वीरा संमत्तदसिणो ।
एस ओहंतरे मुणी, तिने मुत्ते विरए वियाहि ॥ 3 ॥ त्तिबेमि॥100॥
छाया-शब्दान् स्पर्शान् अध्यासमानः सम्यक् सहमानः, निर्विदस्व नन्दिमिह जीवितस्य मुनिर्मौनं समादाय धुनीयात् कर्म शारीरिकं प्रान्तं रूक्षं सेवन्ते वीराः सम्यक्त्व दर्शिनः । एष ओघंतरो मुनिस्तीर्णमुक्तः विरतः व्याख्यातः इति ब्रवीमि ।
पदार्थ - सद्दे - शब्द । फासे - स्पर्श को । अहियासमाणे - सम्यक् प्रकार से सहता हुआ, हे शिष्य ! निव्विंद-तू निवृत्त हो । नंदि - राग और द्वेष से, तथा। इह-इस मनुष्य लोक में । जीवियस्स - असंयम मय जीवन के सम्बन्ध से । नंदि - - राग से निवृत्त हो । मुणी मोणं समायाय - यही मुनि का मौन भाव है, इसी को ग्रहण करके । धुणे कम्म सरीरगं - कर्म शरीर और औदारिक शरीर को धुन देवे । पंतं-तथा जो स्वाभाविक रस रहित वा स्वल्प | लूहं - राग रहित रूक्षाहार । सेवन्तिसेवन करते हैं । वीरा - वीर पुरुष । सम्मत्तदंसिणो- सम्यक्त्वदर्शी वा परमार्थ के