Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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तृतीय अध्ययन : शीतोष्णीय
... द्वितीय उद्देशक
प्रथम उद्देशक में भाव सुप्त एवं जागरणशील पुरुष के स्वरूप को बताया गया है। प्रस्तुत उद्देशक में प्रबुद्ध पुरुष पाप कर्म नहीं करता। पाप कर्म करने से जीव किस प्रकार दुःखी होता है, इस उद्देशक में इसका सजीव वर्णन किया गया है और कहा है कि आतंकदर्शी-नरक आदि दुर्गति में मिलने वाले दुःखों से बचने वाला कभी भी पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होता। भाव निद्रा में सुप्त पुरुष ही पाप की ओर प्रवृत्त होता है। इसलिए प्रायः वह दुःखों एवं असातावेदनीय कर्म का संवेदन करता है। इन भावों को स्पष्ट अभिव्यक्त करने वाले प्रस्तुत उद्देशक का प्रथम सूत्र निम्न हैमूलम्- जाइं च बुड्डिं च इहऽज्ज! पासे,
भूएहिं जाणे पडिलेह सायं। . तम्हाऽतिविज्जे परमंति णच्चा, . .
संमत्तदंसी न करेइ पावं॥4॥ छाया- जातिं च बृद्धिञ्च रहार्य पश्य! भूतैर्जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातं।
तस्मादतिविद्यः परमिति ज्ञात्वा, सम्यक्त्वदर्शी न करोति पापं ॥ __ पदार्थ-अज्ज-हे आर्य! तू। जाइं-जन्म। च-और। वुड्ढिं-वृद्धत्व को। इह-इस मनुष्य लोक में। पासे-देख। भूएहिं-जीवों के। सायं-साता-सुख को। पडिलेह-प्रतिलेखन कर के। जाणे-अपने समान जान, अर्थात् सभी जीव मेरे समान सुख चाहते हैं। तम्हा-इसलिए। अतिविज्जे-तत्त्व निर्णायक विद्या एवं। परमं-मोक्ष को। णच्चा-जानकर। ति-पूर्णार्थ में है। सम्मत्तदंसी-सम्यग्दृष्टि। पाव न करेइ-पापकर्म नहीं करता है। ___ मूलार्थ-हे आर्य! तू इस लोक में जन्म जरा (बुढ़ापे) के दुःख को देख और जीवों के सुख का प्रतिलेखन कर यह जान ले कि सभी जीव सुख चाहते हैं । इसलिए तत्त्व एवं मोक्ष का परिज्ञाता सम्यग् दृष्टि जीव पाप कर्म नहीं करता है।