Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
रुपए का पशुओं का चमड़ा, आंतें, जिगर, सींग एवं चर्बी विदेशों में भेजने के लिए भी प्रतिदिन हजारों पशुओं को मारा जाता है। इसके अतिरिक्त डाकू-लुटेरे राह चलते मनुष्यों को या गांवों में मनुष्यों को मार कर धन-माल लूट लेते हैं। बड़े राष्ट्र छोटे राष्ट्रों को अपने अधीन बनाकर उनके धन-वैभव से अपने राष्ट्र को सम्पन्न बनाने के लिए उन पर आक्रमण करके लाखों मनुष्यों को मार डालते हैं ! आज के अणु युग में ऐटमबम की शक्ति से पूरे जनपद (राष्ट्र ) को देखते ही देखते राख का ढेर बनाया जा सकता है। नागासाकी और हिरोशिमा का उदाहरण हमारे सामने है। इन सब दुष्कर्मों का मूल कारण तृष्णा है। लोभ-लालच के वश ही मनुष्य पशु-पक्षी एवं व्यक्तियों का संहार करने के लिए प्रवृत्त होता है ।
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'जणवय परिग्गहाय' – जनपद परिवादाय का अर्थ है - लोगों को चोर-डाकू आदि बताकर उनकी निन्दा करना' । जब कि सूत्र में क्रियापद का उल्लेख नहीं किया है, फिर भी यहां क्रिया का अध्याहार कर लेना चाहिए ।
लोभ आत्मा के आध्यात्मिक विकास में प्रतिबन्धक चट्टान है। इसलिए मुमुक्षु को लोभ के स्वरूप एवं उसके परिणाम को जानकर उसका त्याग कर देना चाहिए। 'इसी बात का उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - आसेवित्ता एतं (एवं ) अट्ठ इच्चेवेगे समुट्ठिया, म्ह बिइयं नो सेवे निस्सारं पासिय नाणी, उववायं चवणं णच्चा, अणण्णं चर माहणे, से न छणे न छणावए छणतं नाणुजाणंइ, निव्विंद नंदि, अरए पयासु, अणोमदंसी, निसण्णे पावेहिं कम्मे हिं॥115॥
छाया-आसेव्य एतम् (एवं ) अर्थमित्येवैके समुत्थिताः तस्मात् तं द्वितीयं नो सेवेत, निस्सारं दृष्ट्वा ज्ञानी उपपातं च्यवनं ज्ञात्वा अनन्यं चर, माहन ! (मुने) स । न क्षणुयात नाप्यपरं घातयेत् घातयन्तं न समनुजानीयात्, निर्विन्दस्व नन्दिं अरक्तः प्रजासु (स्त्रीषु) अनवमदर्शी निषण्णः पापकर्मभ्यः–पापैःकर्मभिः– पापकर्मसु ।
1. जनपदानां - लोकानां परिवादाय-दस्युरयं पिशुनो वेत्येवं मर्मोद्घाटनाय ।
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- आचारांग वृत्ति