Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
है और विषय-भोग का विजेता कर्म का क्षय करके जन्म-मरण रूप संसार सागर से पार हो जाता है।
“पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुच्चसि” इस पाठ से अयोगी गुणस्थान की ओर संकेत किया गया है। इसमें कहा गया है कि हे पुरुष! तू योगों का निरोध कर, जिससे तू सारे दुःखों से छूट जाएगा। योगों का पूर्ण निरोध चौदहवें
अयोगी गुणस्थान में ही होता है और इस गुणस्थान को स्पर्श करने के बाद जीव निर्वाण-पद को पा लेता है, समस्त कर्म बन्धन एवं कर्मजन्य उपाधि से सर्वथा मुक्त-उन्मुक्त हो जाता है।
इतना स्पष्ट होने पर भी कुछ लोग प्रमाद का सेवन करते हैं, विषय कषाय में आसक्त होते हैं। उनका वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-दुहओ जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जंसि एगे पमायंति॥1200 ___ छाया-द्विहतः [दुर्हतः] जीवितस्य परिवन्दन-मानन-पूजनार्थ (पूजनाय) यस्मिन्नेके प्रमाद्यन्ति। ___पदार्थ-दुहओ-राग-द्वेष से पीड़ित जीव। जीवियस्स-जीवन के लिए। परिवंदण-परिवन्दनार्थ। माणण-मान के लिए। पूयणाए-पूजा के लिए। जं-उक्त निमित्तों से। एगे-कोई एक जीव। पमायंति-प्रमाद का सेवन करते हैं, अर्थात् हिंसादि पाप में प्रवृत्त होते हैं।
मूलार्थ-राग-द्वेष से संतप्त कई एक जीव अपने जीवन के मान-सम्मान के लिए, एवं पूजा-प्रतिष्ठा के लिए प्रमाद-हिंसा आदि परिवन्दन, पापों का आसेवन करते हैं। हिन्दी-विवेचन
जब मनुष्य की दृष्टि देहाभिमुख या भौतिकता की ओर होती है, तब वह दुःखों के नाश का उपाय भी बाह्य पदार्थों में खोजता है। इसलिए वह अनुकूल पदार्थ एवं साधनों पर अनुराग करता है और वह प्रतिकूल साधनों से द्वेष करता है। उनसे बचने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार राग-द्वेष में संलग्न व्यक्ति अपने जीवन के लिए,