Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 4
एगं - आत्म आदि एक द्रव्य को । जाणइ - जानता है ।
मूलार्थ - जो एक द्रव्य को जानता है, वह सब को जानता है, और जो सब को जानता है, वह एक को जानता है ।
हिन्दी - विवेचन
जैन दर्शन में मूल रूप से दो तत्त्व माने हैं - जीव और अजीव । संसार के सभी रूपी-अरूपी पदार्थ इन्हीं दो तत्त्वों में आ जाते हैं। संसार में इन दोनों का इतना घनिष्ट संबंध है कि एक का ज्ञान होने पर दूसरे का या समस्त पदार्थों का परिज्ञान
जाता है। जब व्यक्ति आत्मा का चिन्तन करता है, उसके स्वरूप को जानने का प्रयत्न करता है तो वह सहज ही अन्य तत्त्वों से परिचित हो जाता है। क्योंकि आत्मा असंख्यात प्रदेशी, अरूपी एवं अनन्त चतुष्टय युक्त शुद्ध है। फिर भी अनंत आत्माएं संसार में परिभ्रमण कर रही हैं। इसका कारण यह है कि वे कर्म पुद्गलों से आवृत्त हैं। कर्म अजीव हैं, जड़ हैं। अतः जब कर्म- आवरण पर सोचते हैं, तो अजीव तत्त्व का है. अब प्रश्न यह होता है कि अजीव या कर्म आत्मा को क्यों आवृत्त करते हैं। इस समस्या के समाधान में गोता लगाने पर ज्ञात होता है कि आत्मा राग-द्वेष एवं कषाय युक्त परिणामों तथा योगों की प्रवृत्ति से शुभ और अशुभ कर्मों-जिन्हें पाप और पुण्य भी कहते हैं, का संग्रह करती है। शुभाशुभ कर्म आगमन के द्वार को शास्त्रीय भाषा में आस्रव कहते हैं। इन आए हुए कर्मों के परिणामों की तीव्रता एवं मन्दता के अनुसार उनका तीव्र एवं मन्द बन्ध होता है । संयम के द्वारा आते हुए नए कर्मों को रोक दिया जाता है और तप के द्वारा पुराने कर्मों का क्षय कर दिया जाता है । इस प्रक्रिया से आत्मा एक दिन कर्म एवं कर्मजन्य साधनों से सर्वथा मुक्त हो जाती है। इन्हें क्रमशः संवर, निर्जरा और बन्ध कहते हैं । इस प्रकार आत्मा के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान करने वाला व्यक्ति अन्य तत्त्वों को भी जान लेता है। एक तत्त्व के परिज्ञान में सब तत्त्वों का तथा सब तत्त्वों के परिज्ञान में एक तत्त्व का ज्ञान हो जाता है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि एक के साथ अनेक या समस्त का संबंध जुड़ा हुआ है और अनेक में एक समाहित है । इसलिए सम्यक्तया एक का ज्ञान होने पर अनेक का बोध सहज ही हो जाता है । इस प्रकार आत्मचिन्तन की गहराई में उतरने