Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध पदार्थ-जं-जो। उच्चालइयं-कर्म क्षय करना। जाणिज्जा-जानता है। तं-बह मोक्ष मार्ग को। जाणिज्जा-जानता है। जं-जो। दूरालइयं-मोक्ष मार्ग को। जाणिज्जा-जानता है। तं-वह। उच्चालइयं-कर्म क्षय करने के मार्ग को। जाणिज्जा-जानता है। पुरिसा-हे पुरुष! अत्ताणमेव-अपने आत्मा को ही। अभिणिगिज्झ-धर्म ध्यान से बाहर जाते हुए को रोक्-निरोध कर। एवं-इस प्रकार तू। दुक्खा-दुःख से। पमुच्चसि-छूट जाएगा। पुरिसा-हे पुरुष! सच्चमेवसत्य और संयम को ही। समभिजाणाहि-भली प्रकार जानकर आचरण कर। सच्चस्स-सत्य की। आणाए-आज्ञा में। उवट्ठिए-उपस्थित हुआ। से-वह। मेहावी-बुद्धिमान व्यक्ति। मारं-संसार को। तरइ-पार कर देता है। सहिओज्ञानादि से वा हित से युक्त। धम्ममायाय-श्रुत और चारित्र रूप धर्म को ग्रहण करके। सेयं-पुण्य वा आत्महित को। समणुपस्सइ-सम्यक् प्रकार से देखता है।
मूलार्थ-जो कर्म क्षय करने के मार्ग को जानता है, वह मोक्ष को भी जानता है और जो मोक्ष को जानता है, वह कर्म क्षय करने के मार्गों को भी जानता है। हे पुरुष! तू अपने आत्मा का ही निग्रह कर, धर्मध्यान से विमुख जाते हुए आत्मा को रोक, इस प्रकार करने से तू दुःखों से छूट जाएगा। हे पुरुष! तू सत्य-संयम का सम्यक् प्रकार से अनुष्ठान कर, पालन कर, सूत्र की-आगम की आज्ञा में उपस्थित हुआ मेधावी-बुद्धिमान संसार को तैर जाता है और ज्ञानादि से युक्त हुआ श्रुत
और चारित्र रूप धर्म को ग्रहण करके आत्महित को भली-भांति देखता है। . हिन्दी-विवेचन
यह हम देख चुके हैं कि साधक ध्यान के द्वारा योगों को एकाग्र करता है। मन-वचन एवं काया की बाह्य प्रवृत्ति को अपने अंदर मोड़ता है, आत्म चिन्तन में लगाता है। इससे संयम-साधना में तेजस्विता आती है और वह इस साधना के द्वारा नये कर्मों के आगमन को रोकता है और पुरातन कर्मों का क्षय करता चलता है। इस प्रकार वह एक दिन समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय करके मोक्ष को, निर्वाण को पा लेता है; क्योंकि कर्मों का आत्यन्तिक क्षय करना ही मोक्ष है अथवा संपूर्ण कर्म क्षय का ही दूसरा नाम मुक्ति है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में यह कहा गया है कि जो कर्म क्षय करना