Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
संसार में रोक कर रखने वाले अघातिकर्म चतुष्टय को दूर कर, धैर्यवान पुरुष तप साधना के द्वारा कर्म वृक्ष की शाखा-प्रशाखा एवं मूल का उन्मूलन करके आत्मा एवं लोक के स्वरूप का द्रष्टा, निष्कर्म अर्थात् कर्म आवरण से रहित सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन जाता है। हिन्दी-विवेचन
प्रबुद्ध पुरुष पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होता है। प्रबुद्ध पुरुष वह है, जो लोक के यथार्थ स्वरूप को जानता है। जो इस बात को भली-भांति जानता है कि यह जीव आरम्भ-समारम्भ आदि दुष्कर्मों में प्रवृत्त होकर कर्म का संग्रह करता है और उसके परिणाम स्वरूप नरकादि लोक में विभिन्न दुःखों का संवेदन करता है। इसके साथ वह यह भी जान लेता है कि जीव आरम्भ आदि दोष जन्य प्रवृत्ति से निवृत्त हो कर निष्कर्म बन जाता है और वही मार्ग-जिस पर चलकर जीव निष्कर्म बनता है, मोक्ष. मार्ग कहलाता है। अतः लोक एवं मोक्ष के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला साधक ही प्रबुद्ध पुरुष कहलाता है और वह यथार्थ द्रष्टा पाप कार्य के दुःखद परिणामों को जानता है, इसलिए वह पाप कार्य में प्रवृत्ति नहीं करता है।
जब मनुष्य पाप कर्म से सर्वथा निवृत्त हो जाता है, तो वह दुःख एवं भव परिभ्रमण के मूल एवं उत्तर कारणों का समूलतः नाश कर देता है। तथागत बुद्ध ने भी दुःख नाश करने का उपदेश दिया है। परन्तु बुद्ध एवं महावीर के उपदेश में पर्याप्त अन्तर है। बुद्ध की दृष्टि केवल भौतिक दुःखों तक ही सीमित रही है। वे एक डाक्टर की भांति नशे का इंजेक्शन देकर बाहरी वेदना को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। वे दुःख की मूल जड़ को नहीं पकड़ते और न उसके नाश का ही प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं, परन्तु भगवान महावीर केवल भौतिक दुःख के नाश में ही नहीं उलझे रहे। उन्होंने दुःख के मूल कारण को खोजा और एक निपुण चिकित्सक की तरह रोग को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘अग्गं च मूलं च...' पाठ इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि भगवान महावीर या जैन दर्शन का मूल स्वर संसार वृक्ष के पत्तों को ही नहीं, अपितु उसकी जड़ को उखाड़ने का रहा है। उन्होंने अग्र भाग को भी समाप्त करने