Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
491
तृतीय अध्ययन, उद्देशक 2 की बात कही, उसका भी मार्ग बताया है, परन्तु साधक का लक्ष्य केवल शाखा-प्रशाखाओं का नाश तक ही नहीं, अपितु उस विषाक्त वृक्ष को जड़ से उन्मूलन करने का है। जैन दर्शन ऊपर-ऊपर से ही कांट-छांट करने का पक्षपाती नहीं है, वह जड़ मूल से नाश करने का उपदेश देता है।
मूल कर्म चार हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म; क्योंकि ये आत्मा के मूल गुणों को प्रच्छन्न करने वाले हैं। उसके अनन्त ज्ञान दर्शन, अव्याबाध सुख और वीर्य-शक्ति को ढकने वाले हैं। शेष चार कर्म-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म आत्मा के मूल गुणों को प्रभावित नहीं करते हैं। उनका प्रभाव इतना ही रहता है कि वे आत्मा को संसार में रोके रखते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि आत्मा के मूल गुणों के घातक पहले चार कर्म हैं, इसलिए उन्हें घातिकर्म कहते हैं। उनके नाश का अर्थ है-संसार का नाश। यह सत्य है कि वृक्ष को जड़ से उखाड़ते ही शाखा-प्रशाखा एवं पत्ते आदि नष्ट नहीं हो जाते। परन्तु साथ में यह भी तो है कि मूल का नाश होने के बाद शाखा आदि का अस्तित्व थोड़े समय का ही रह जाता है। क्योंकि उन्हें पोषण मूल से ही मिलता है और उसके नाश होते ही उन्हें पोषण मिलना बन्द हो जाता है और परिणाम स्वरूप वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। यही स्थिति संसार की है। मूल कर्मों के क्षय होते ही शेष कर्म आयुष्य कर्म की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाते हैं और यह जीव पूर्णतः निष्कर्म-कर्म आवरण से रहित बन जाता है। ' निष्कर्म जीव किस गुण को प्राप्त करता है, इसका विवेचन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-एस मरणापमुच्चइ, से हु दिट्ठभए मुणी; लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिए सहिए सया जए कालकंखी परिव्वए, बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं॥112॥
' छाया-एष मरणात् प्रमुच्यते स खलु दृष्टभयो मुनिर्लोके परमदर्शी विविक्तजीवी उपशान्तः समितः सहितः सदायतः कालाकांक्षी परिव्रजेत् बहु च खलु पापकर्म प्रकृतम्।