Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलम् - अवि से हासमासज्ज, हंता नंदीति मन्नइ । अलं बालस्स संगेण, वेरं वड्ढेइ अप्पणो ॥6॥ छाया - अपि स हासमासाद्य, हत्वा नन्दीति मन्यते ।
अलं बालस्य संगेन वैरं वर्द्धयति आत्मनः॥
पदार्थ - अवि-संभावना अर्थ में है । हासं आसज्ज - हास्य को स्वीकार करके । - वह, विषयासक्त पुरुष । हंता - जीवों को मारकर । नंदीति-आनन्द। मन्नइमनाता है। अलंवस-पर्याप्त है, वह । बालस्स - बाल - अज्ञानी के । संगेण - संसर्ग से। अप्पणो-अपनी आत्मा के साथ । वेरं - वैर भाव को । वड्ढेइ - बढ़ा रहा है।
मूलार्थ - वह विषयासक्त व्यक्ति हास्य को ग्रहण करके हंसी- विनोद के लिए जीवों को मारकर प्रसन्न होता है । ऐसे अज्ञानी पुरुष के संसर्ग से आत्मा वैर भाव बढ़ाता है।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि हास्य एवं अज्ञान से आत्मा में वैर भाव बढ़ा है। क्योंकि हास्य एवं अज्ञान के वश मनुष्य हिंसा आदि पाप कार्य में प्रवृत्त होता है और उसमें आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता है । परन्तु मरने वाला प्राणी उस दुःख से बचने के लिए पूरा प्रयत्न करता है, अपनी सारी शक्ति लगा देता है। कारण यह है कि सभी प्राणी जीने के इच्छुक हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए हम देखते हैं कि वध गृह, बलिदान के स्थान पर या किसी अन्य स्थान में मारने के लिए लाए
बकरे आदि पशुओं को जब मारा जाता है, तो वे उसके कठोर बन्धन से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं। उनकी इस चेष्टा को रोकने के लिए घातक के मन में क्रूरता और अधिक उग्र रूप धारण करती है और प्रतिक्षण द्वेष भाव बढ़ता है। उधर मरने वाले प्राणी के मन में भी बदले की भावना उबुद्ध होती है - भले ही वह दुर्बल होने के कारण अपनी चेष्टा में सफल नहीं होता, परन्तु प्रतिशोध की भावना उसके मन से नहीं निकलती। इस प्रकार दोनों व्यक्ति वैर भाव का अनुबन्ध कर लेते हैं। इससे यह कहा गया कि ऐसा अज्ञानी व्यक्ति एवं उसका संसर्ग करने वाला व्यक्ति भी वैर-भाव को बढ़ाता है।