Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 6
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कर्ती का उद्देश्य क्या है? वह समझने की दृष्टि से पूछ रहा है या वक्ता की परीक्षा करने के लिए या उसे निरुत्तर करने या हराने की दृष्टि से पूछ रहा है। उक्त सारी परिस्थितियों एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानने वाला वक्ता ही उपदेश देने योग्य है। वह श्रोताओं के तथा प्रश्नकर्ता के मन का यथार्थ समाधान कर सकता है। उन्हें यथार्थ मार्ग बता सकता है। वह उन्हें कर्म बन्धन से मुक्त होने का मार्ग बताने में भी योग्य है। क्योंकि वह ज्ञान सम्पन्न और सदा-सर्वदा हिंसा आदि दोषों से दूर रहता है। इसलिए वह प्रबुद्ध पुरुष कर्मों को क्षय करने में निपुण है और वह प्रवृत्ति एवं पूर्व बँधे हुए बन्धनों से मुक्त होने के प्रयत्न में सदा संलग्न रहता है। ऐसे महापुरुष को वीर, मेधावी, कुशल, खेदज्ञ आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है। __ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त “अणुग्घायण खेयन्ने" और "बन्धपमुक्खमन्नेसी" दोनों शब्दों की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है-“जिसके प्रभाव से यह जीव संसार में परिभ्रमण करता है, उसको अण-कर्म कहते हैं। उस कर्म का जो सर्वथा क्षय करने में समर्थ है, उसे खेदज्ञ कहते हैं।” इसका तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति कर्मों को क्षय करने की विधि जानता है, वही मुमुक्षु-कर्म करने के लिए उद्यत पुरुषों में कुशल एवं वीर माना जाता है। जो चारों प्रकार के बन्ध एवं बन्धन से छूटने के उपाय में संलग्न है, उसे बन्ध-मोक्षान्वेषक कहते हैं। परन्तु यहां इतना ध्यान रखना चाहिए कि 'अणुग्घायणखेयन्ने शब्द से मूल और उत्तर कर्म प्रकृतियों के भेद से विभिन्न योग निमित्त से आने वाले 'कषायमूलकबध्मान' कर्म की जो बद्ध, स्पृष्ट निधत्त और निकाचित रूप अवस्था है, उसको तथा उसे दूर करने के उपाय को जो जानता है, लिया गया और बन्धपमुक्खमन्नेसी, शब्द से कर्म बन्धन से छूटने के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान अपेक्षित है, इसलिए यहां पुनरुक्ति दोष का प्रसंग उपस्थित नहीं होता है। 1. अणोद्घातनस्य खेदज्ञः अणत्यनेन जन्तुगणश्चतुर्गतिकं संसारमित्यणं-कर्म तस्योत्प्रावल्येन
घातनं अपनयनं तस्य तत्र वा खेदज्ञो-निपुणः इह हि कर्मक्षपणोद्यतानां मुमुक्षूणां यः कर्मक्षपण विधिज्ञः स मेधावी कुशलो वीर इत्युक्तं भवति। 2. यश्च प्रकृति स्थित्यनुभाव प्रदेशरूपस्य चतुर्विधस्यापि बन्धस्य यः प्रमोक्षः तदुपायो वा तमन्वेष्टुं मृगयितुं शीलमस्येत्यन्वेषी, यश्चैवं भूतः स वीरो मेधावी खेदज्ञ इतिपूर्वेण सम्बन्धः, अणोद्घातनस्य खेदज्ञ इत्यनेन मूलोत्तर प्रकृतिभेद भिन्नस्य योगनिमित्तायातस्य कषायस्थितिकस्य कर्मणो बध्यमानावस्थां