Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
इसके विपरीत जिसका मन साधना में नहीं लगा है, जिसके समक्ष कोई लक्ष्य नहीं है; और जिसके मन में साध्य में तन्मयता एवं एकरूपता नहीं है, वह मोह के वश संसार में परिभ्रमण करता है। विषयों की आसक्ति एवं मोह के कारण वह धर्म के स्वरूप को नहीं समझ पाता; इसलिए वह बार-बार जन्म-मरण के प्रवाह में बहता हुआ विभिन्न दुःखों का संवेदन करता है। ___ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘सीउसिणच्चाई' पद का पांचों आचार के अनुसार भी अर्थ किया जाता है। वह इस प्रकार है____ 1. ज्ञानाचार विषयक-आगम, ग्रंथ आदि को मन्दता से पढ़ना शीत कहा जाता है और अति शीघ्रता से पढ़ना उष्ण। ये दोनों दोष हैं, अतः अतिमन्द एवं शीघ्र गति का त्याग करके आगम आदि को स्वाभाविक गति से पढ़ना चाहिए। ____2. दर्शनाचार विषयक-दर्शन को परीषह शीत कहा है और आक्रोश आदि को उष्ण अथवा सत्कार आदि परीषह को शीत और वध परीषह की उष्ण कहा है। इन सब परीषहों को शान्तभाव से सहन कर लेना चाहिए।
3. चारित्राचार विषयक-शीतोष्ण-अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शों के द्वारा संयम से विचलित नहीं होना।
4. तपाचार विषयक-आगम में ब्रह्मचर्य को सर्वश्रेष्ठ तप कहा है। अतः उसकी सुरक्षा के लिए शीतोष्ण स्पर्श वाली योनि (स्त्री) से सम्बन्ध न करे। .
5. वीर्याचार विषयक-मन्दगति को शीत और अति शीघ्रं गति को उष्ण कहा है। साधु को अति मन्द एवं शीघ्र गमनागमन का त्याग कर देना चाहिए। इस के
अतिरिक्त पंडितवीर्य ज्ञानबल को शीत और बालवीर्य-अज्ञान को उष्ण कहा है। प्रथम का फल निर्वाण है और द्वितीय का संसार-परिभ्रमण। अतः बालवीर्य का परित्याग करके ज्ञान की साधना में संलग्न होना चाहिए।
‘फरुसयं नो वेएइ' का अर्थ है-मोक्षाभिलाषी पुरुष कठोर परीषहों को दुःख रूप नहीं, अपितु अपना सहायक मानता है। यदि तप साधना से शरीर में कोई वेदना हो जाए तो वह उसका संवेदन नहीं करता, हाय-हाय नहीं करता। परन्तु शांतभाव से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहता है।
'वेरोवरए' का अर्थ है-वैर से निवृत्त होना। वैर से निवृत्त व्यक्ति ही आत्मविकास