Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
ऐसे ज्ञाता को किस गुण की प्राप्ति होती है, इसे बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-सीउसिणच्चाई से निग्गंथे अरइरइसहे, फरुसयं नो वेएइ, जागर वेरोवरए, वीरे एवं दुक्खापमुक्खसि, जरामच्चुवसोवणीए नरे सययं मूढ़े धम्म नाभिजाणइ॥109॥
छाया-शीतोष्णत्यागी स निर्ग्रन्थः अरतिरतिसहः परुषतां नो वेत्ति जागर वैरोपरतः, वीरः एवं दुःखात् प्रमोक्ष्यसि जरामृत्युवशोपनीतः नरः सततं मूढ़ः धर्मं नाभिजानाति।
पदार्थ-सीउसिणच्चाई-शीतोष्ण का त्यागी। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ। अरइरइसहे-अरति और रति को सहता हुआ। फरुसयनोवेएइ-परुषता-कठोरता का अनुभव नहीं करता। जागर-असंयम रूप भाव निद्रा से जागता है। वेरोवरए-वैर से उपरत हो गया है, उसे गुरु कहते हैं। एवं-इस प्रकार। वीरे-हे वीर! दुक्खापमुक्खसि-तू दुःखों से मुक्त हो जाएगा और दूसरों को भी मुक्त करेगा, परन्तु जो उक्त गुणों से रहित है, वह। नरे-मनुष्य। जरामच्वुवसोवणीए-जरा और मृत्यु के वशीभूत हुआ। धम्मं नाभिजाणइ-धर्म के स्वरूप को नहीं जानता। क्योंकि मोह कर्म के उदय से वह। मूढ़े-मूढ़-भाव निद्रा में सुप्त है। , ___ मूलार्थ-निर्ग्रन्थ-मुनि असंयम-भावनिद्रा का त्यागी होने के कारण जागरणशील है और वैर-विरोध से निवृत्त हो चुका है। इस लिए वह शीतोष्ण का त्यागी, अरति
और रति को सहता हुआ कठिन परीषहों के उपस्थित होने पर भी कठोरता का अनुभव नहीं करता। गुरु कहते हैं कि हे वीर! इस प्रकार के श्रेष्ठ आचरण के द्वारा तू दुःखों से सर्वथा मुक्त हो जाएगा तथा दूसरों को भी मुक्त करने में समर्थ होगा।
परन्तु जो जागरणशील नहीं है, वह जरा और मरण के वशीभूत होकर मोह से मूढ़ बना हुआ दुःखों के प्रवाह में बहता रहता है। वह धर्म के स्वरूप को भी नहीं जान पाता, इसलिए वह दुःखों से मुक्त भी नहीं हो सकता। हिन्दी-विवेचन
साधक का लक्ष्य है-मोक्ष अर्थात् कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होना। इसी लक्ष्य को, साध्य को सिद्ध करने के लिए वह साधना करता है। जब साधक अपने साध्य में तन्मय होता है, तो उसे उस समय बाह्य संवेदन की अनुभूति नहीं होती। क्योंकि अनुकूल