Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अध्यात्मसार : 6
मूलम् : अवि य हणे अणाइयमाणे, इत्थंपि जाण सेयंति नत्थि, केयं पुरिसे कं च नए ? एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे परिमोयए, उड्ढ अहं तिरियं दिसासु, से सव्वओ सव्व परिन्नाचारी, न लिप्पइ छणपए वीरे से मेहावी अणुग्घायणखेयन्ने, जे य बन्ध पमुक्खमन्नेसी कुसले पुण नो बद्धे नो मुक्के ॥ 2/6/103
मूलार्थ : ऐसा होना भी सम्भव है कि श्रोताओं के अभिप्राय और योग्यता आदि का ज्ञान प्राप्त किये बिना उनको दिया गया धर्मोपदेश निष्फल या विपरीत फल देने वाला हो, अर्थात् उपदेश को सुनकर श्रोताओं में से कोई मुख्य श्रोता उठकर उपदेशक साधु के वचन का अनादर करता हुआ उसे मारने-ताड़ने या तर्जना करने पर भी उतारू हो जाए तो यह असम्भव नहीं, इसलिए परिषद् के अभिप्राय को जाने बिना धर्मोपदेश करना भी श्रेयस्कर नहीं है । अतः उपदेशक के लिए उपदेश देने से पहले यह जानना बहुत आवश्यक है कि जिसको वह उपदेश देने लगा है, वह कौन, किस विचार का और किस देवता को मानता है । इन सब बातों का ज्ञान रखने वाला वीर पुरुष प्रशंसा के योग्य है तथा वह ऊँची-नीचीं और मध्य दिशा में उत्पन्न होने वाले जीवों को आठ प्रकार के कर्मों के बन्धन से मुक्त कराने में समर्थ है, और सब प्रकार से सर्व परिज्ञा के अनुसार चलने वाला परम बुद्धिमान, कर्मों के नाश करने में समर्थ और बन्ध - मोक्ष का यथावत् अन्वेषण करने वाला है और वह कुशल अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र को प्राप्त करने वाला, मिथ्यात्व और कषाय के उपशम से न तो बद्ध है और न मुक्त है अथवा कुशल, अर्थात् चार प्रकार के घातिकर्मों का क्षय करने वाला 'तीर्थंकर या सामान्य केवली' न तो बद्ध है और न ‘भवोपग्राही कर्म के सद्भाव से' ही मुक्त है। तात्पर्य यह कि घातिकर्मों के क्षय से उसके कर्म का बन्ध नहीं होता, इसलिए वह बद्ध नहीं और नाम - गोत्र