Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 6
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देखने वाले। एस-यह। मुणी-मुनि। ओहंतरे-भवौघ संसार-सागर को तैरता है, तथा। तिन्ने-संसार समुद्र को पार कर जाता है, तथा। मुत्ते-परिग्रह से मुक्त हुआ। विरए-विषयादि से विरत हुआ। वियाहिए-कहा गया। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-हे शिष्य! तू शब्द और स्पर्श आदि को सम्यक्तया सहन करता हुआ राग और द्वेष से रहित हो, तथा असंयम जीवन के संबन्ध में हर्ष मत कर, हे मुने! तू मौन भाव को ग्रहण करके कार्मण शरीर को धुन दे। समदर्शी आत्माएं प्रांत और रूक्ष आहार का सेवन करती हैं, वे ही वीर हैं। यह मुनि संसार सागर को पार कर गया, अतः उसे तीर्ण, मुक्त विरत कहा गया है, इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को शब्दादि विषयों को भली-भांति जानकर, उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए। क्योंकि उनमें आसक्त होने से अनुकूल विषयों पर राग-भाव और प्रतिकूल विषयों पर द्वेष भाव आना स्वाभाविक है और राग-द्वेष ही कर्म बन्ध के मूल कारण हैं। यह बात ठीक है कि मनुष्य के सामने, जहां तक साधक के सामने भी ये विषय आते हैं, अनुकूल एवं प्रतिकूल शब्द, गंध, रूप, रस और स्पर्श का संयोग भी मिलता रहता है। अतः इसका यह अर्थ नहीं है कि साधु कान-आंख आदि बन्द करके चले या बैठा रहे। विषयों से बचने का तात्पर्य इतना ही है कि उनमें आसक्त न हो, अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी प्रकार के विषयों की ओर ध्यान न दे। अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी प्रकार का प्रसंग उपस्थित होने पर समभाव का त्याग न करे, अर्थात् विषमता के प्रवाह में न बहे।
इसलिए यह आदेश दिया गया है कि मुनि विषयों में राग-द्वेष न करे। यही उसका मौन है। वस्तुतः देखा जाए तो मौन का अर्थ केवल नहीं बोलना ही नहीं है। नहीं बोलना, यह व्यावहारिक या द्रव्य मौन है। इसमें केवल शब्द के विषय-भाषा को रोका जाता है, उसमें भी बोलने पर ही प्रतिबन्ध है, न कि सुनने पर भी। श्रोत्र-इंद्रिय की प्रवृत्ति द्रव्य मौन में खुली रहती है, अतः मौन का यथार्थ अर्थ है-शब्दादि विषयों में राग-द्वेष नहीं करना। क्योंकि कर्म बन्ध राग-द्वेष से होता है। केवल इन्द्रियों के साथ शब्दादि विषयों का सम्बन्ध होने मात्र से कर्म का बन्ध नहीं होता है, जब तक