Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अध्यात्मसार: 2
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आत्म रुचि के आने पर नावकखइ की अवस्था आती है । यह अवस्था भी साधना से या पुरुषार्थ से आती है । मूलतः व्यक्ति अणगार तब बनता है, जब ऐसी अवस्था आती है और ऐसा अणगार शीघ्र ही केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है 1
दूसरी ओर ऐसा व्यक्ति जो कषायों के और इन्द्रियों के परिताप से युक्त है, वह यह सब कुछ अपना बल बढ़ाने के लिए करता है । प्रथम वह शरीर का बल बढ़ाने हेतु आरंभ-समारंभ करता है । खयाल रखें शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है, लेकिन केवल बलवृद्धि के लिए कि मैं दूसरों से अधिक बलवान बनूं, अधिक सुन्दर बनूं यहां इस ओर संकेत है । इसी प्रकार मित्रबल, जातिबल, देवबल इत्यादि । जैसे देवबल बढ़ाने के लिए हिंसा करना, बलि चढ़ाना यह सब अज्ञानवश होता है । कभी-कभी व्यक्ति संत्ता और मोह के वश भी करता है । अनेक साधनाएं ऐसी हैं जिनसे सत्ता व शक्ति मिलती है, क्योंकि वे निम्न स्तर की हैं, अतः जल्दी सिद्ध भी हो जाती हैं। लेकिन आरंभ - समारंभ से युक्त हैं । मेधावी साधक को 'संपेहाए' सम्यक् प्रकार से इसे जानकर न स्वयं करना चाहिए, न करवानी चाहिए और न अनुमोदना ही करनी चाहिए।
'विणाविलोभं' - इस प्रथम पद से संयम की शुरूआत होती है । यह संयम की साधना भी है और यह संयम की सर्वोत्कृष्ट अवस्था भी है। शुरूआत इसलिए कि जब कोई संयम लेता है, तब वह संयम का ग्रहण लोभ वश या आकांक्षा वश नहीं कर सकता। लोभ का अर्थ है आकांक्षा या तो दुःख से दूर जाने की आकांक्षा अथवा सुख पाने की आकांक्षा । इन दो बातों में सभी प्रकार की आकांक्षाएं आ जाती हैं । जब भी कोई संयम लेता है, तब वह लोभ के वश नहीं ले सकता । यदि वह लोभ के अधीन होकर ले तो वह संयम में आगे नहीं बढ़ सकता। जब तक आकांक्षा न छूट जाए, तब तक स्थिरता नहीं आती। जब तक वह आकांक्षा बनी रहती है, तब तक वह संयम में स्थिर नहीं हो सकेगा। यदि संयम लेने के बाद भी कोई आकांक्षा जग गई तो अस्थिरता आ जाएगी। किसी भी प्रकार के सुख की आकांक्षा, देवगति का सुख, मान-सम्मान का सुख, मित्र-परिवार का सुख, दुःख से दूर जाने की आकांक्षा, शरीर को रोग या कलह से दूर जाने की इच्छा । उससे संयम में क्लेश उत्पन्न होता है, अस्थिरता आती है। विणाविलोभं यह पद महत्त्वपूर्ण है । इसी से संयम की शुरूआत,