Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5
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हिन्दी-विवेचन
जीवन में अन्य विकारों की अपेक्षा काम को सबसे बलशाली शत्रु माना है। उस पर विजय पाना बहुत ही कठिन है। इसी कारण सूत्रकार ने इसे 'दुरितकम्मा' कहा है, अर्थात् इसे परास्त करना दुष्कर है। साधारण मनुष्य तो क्या, कभी कभी महान् साधक भी इसके प्रहार से विचलित हो उठते हैं, उसके सामने नतमस्तक हो जाते हैं। ... काम के दो भेद हैं-1. इच्छा-वासना रूप काम और 2. मैथुन सेवन रूप काम। दोनों प्रकार के काम का उद्भव मोहनीय कर्म के उदय से होता है। हास्य, रति आदि से इच्छा आकांक्षा एवं वासना उबुद्ध होती है और वेदोदय से मैथुन सेवन की प्रवृत्ति होती है। अतः काम-भोग मोहनीय कर्मजन्य हैं और जब तक मोह कर्म का सद्भाव रहता है, तब तक उनका सर्वथा उन्मूलन कर सकना कठिन है। इसलिए सूत्रकार ने इसे जीतना दुष्कर कहा है। क्योंकि मोह कर्म को सब कर्मो का राजा माना गया है। इसलिए घातक कर्मों का क्षय करने वाले सर्वज्ञ सबसे पहले मोह कर्म का ही नाश करते हैं। क्योंकि राजा को परास्त करने पर शेष शत्रु तो स्वयं ही पराजित हो जाते हैं; फिर उनका नाश करने में देर नहीं लगती, परन्तु राजा को या मोह कर्म को जीतना आसान काम नहीं है। यह इतना भयंकर है कि बड़े-बड़े योद्धाओं के दांत खट्टे कर देता है। इसलिए साधक को इस पर विजय पाने के लिए सदा सावधान रहना चाहिए। अपने मन-वचन एवं शरीर को वासना की ओर प्रवृत्त नहीं होने देना चाहिए। - वासना एक ऐसी भूख है, जो कभी शांत नहीं होती। काम-भोग को आग कहा गया है और आग ईंधन डालने पर शांत नहीं, अपितु अधिक प्रज्वलित होती है। यही बात विषय-वासना की है। यह पदार्थों के भोगोपभोग से शांत नहीं होती, अपितु अधिक उग्र बनती जाती है। हम सदा देखते हैं कि एक इच्छा पूरी भी नहीं हो पाती कि दूसरी इच्छा जाग उठती है। उसके समाप्त होते, न होते तीसरी, चौथी आदि जागती रहती हैं, उनका कभी भी अन्त नहीं आता। इसलिए मानव को कभी भी सन्तोष की प्राप्ति नहीं होती। यदि कभी भाग्य से इच्छाएं पूरी भी हो जाएं, तब भी मनुष्य सुख को नहीं पा सकता। क्योंकि आखिर यह जीवन भी तो सीमित है और वासना असीम है, अनन्त है, और उसकी अभिवृद्धि के साथ-साथ जीवन को बढ़ाया