Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
में आकर्षित होने जैसा कुछ भी नहीं है । इसका अर्थ उन पुद्गलों से द्वेष करना भी नहीं है, अपितु शरीर के वास्तविक धर्म को आयत - चक्खू बनकर जान लेना है, क्योंकि जैसा हम इस शरीर को जानेंगे, वैसा ही इस जगत् के साथ हमारा सम्बन्ध होगा । जो शरीर में होता है, वही 'ब्रह्माण्ड में' वैसा ही इस विश्व में । फिर मूल क्या है, इस संसार का - इस देह के प्रति रही हुई आसक्ति । इस देहासक्ति से ही इस विश्व में नाना प्रकार के आसक्ति के सम्बन्ध बनते हैं, क्योंकि इस जगत् के साथ में हम इस देह के द्वारा ही जुड़े हुए हैं।
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स्वभाव में लौटना : शरीर को गन्दा, अच्छा या बुरा मानना नहीं, क्योंकि गन्दा या अच्छा क्या है, यह मन की धारणा है, यह सारा पुद्गलों का परिणमन है। वही विष्ठा और मल कल परिवर्तित होकर मिट्टी बन जाएगा और कल कोई इसी से स्नान करेगा। अशुचि भावना का अर्थ, यह देखना है कि मेरे शरीर में क्या है, जैसा भीतर है वैसा ही बाहर, तुम्हारे शरीर में विश्व का सार समाया हुआ है और फिर इस विश्व के साथ भी हम उसी देह से जुड़े हुए हैं। एक अन्य दृष्टि से, शुचि अर्थात् जो ग्रहण करने योग्य है। अशुचि अर्थात् जो ग्रहण करने योग्य नहीं है । शुचि अर्थात् जो मेरा स्वभाव है। अशुचि अर्थात् जो मेरा स्वभाव नहीं है। मैं इससे अलग हूँ । शरीर के प्रति अशुचि भावना का अर्थ है कि यह मेरा स्वभाव नहीं है, उसे अपना मानना भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति को देखना और जानना ही अशुचि भावना है । शरीर को देखते-देखते यह समझ में आ जाएगा कि यह मेरे ग्रहण करने योग्य नहीं है । शरीर के प्रति जो आकर्षण है, वह इस बोध से विरत होगा । मैं और शरीर भिन्न हैं, भिन्न थे और भिन्न रहेंगे, इस प्रकार से देखने से भ्रान्ति टूटती है और व्यक्ति स्वभाव में आता है।
पंडिए पडिलेहाए : यह पद महत्त्वपूर्ण है । जो पंडित है वह प्रतिलेखन करता है । प्रतिलेखन अर्थात् विपस्सी; वह विशेष रूप से देखता है । जो पण्डा अर्थात् बोध से युक्त है । प्रतिलेखन मन के विचारों का भी होता है । इस सूत्र की विशेषता यह है कि इसमें तीनों ही अवस्था आ सकती हैं । साधारण साधक की, आत्म-ज्ञानी की और केवलज्ञानी की।
घृणा : यहाँ पर यह ख्याल रखना कि घृणा करने जैसा कुछ भी नहीं है, क्योंकि जो कोई निकृष्ट से निकृष्ट कार्य भी कर रहा है, वह भी अन्ततः आत्मा का ही रूप है।