Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
428
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
___ बात तो ठीक है, परन्तु इसका कारण यह है कि मनुष्य अपने सुख के लिए या यों कहिए कि अपने स्वार्थ को साधने के लिए पाप कर्म में प्रवृत्त होता है। जब मनुष्य के जीवन में स्वार्थ की भावना जागृत होती है तो उस समय वह संसार के प्राणियों के हित को तो क्या अपने हित को भी भूल जाता है। पदार्थों एवं भौतिक सुखों का मोह एवं तृष्णा मनुष्य की हिताहित की दृष्टि को आवृत कर लेती है। वह कुछ सब जानते हुए भी मूढ़ बन जाता है। इसके लिए एक उदाहरण दिया जाता है
एक राजा को भयंकर रोग हो गया। कई राजवैद्यों से चिकित्सा कराने पर भी वह स्वस्थ नहीं हो पाया। एक अनुभवी वैद्य को बुलाया, उसने राजा के रोग को शांत कर दिया और साथ में यह भी कह दिया कि इस रोग का मूल कारण आम्रफल है। अतः यदि आप स्वस्थ एवं कुछ दिन जीवित रहना चाहते हैं, तो कभी भी आम न खाएँ। राजा ने स्वीकार कर लिया। समय बीतता चला गया, एक दिन राजा उद्यान में घूम रहा था। आम का मौसम था। आम के वृक्षों की शाखाएं मधुर पके फलों से लदी हुई विनम्र शिष्य की भांति झुक रही थीं। आम्र फलों की मधुर सुवास चारों ओर फैल रही थी। फलों की सुवास एवं उनके सौंदर्य को देखकर राजा का मन ललचा गया। मंत्री ने उसे रोकना भी चाहा, परन्तु तृष्णा ने राजा के मन पर अधिकार जमा लिया था। अतः सबके उपदेश को ठुकराकर वह आम खा ही गया और उसका परिणाम महावेदना के रूप में प्रकट हुआ और उसने राजा के प्राण भी ले लिए।
कहने का तात्पर्य यह है कि स्वार्थ, तृष्णा एवं मोह के वश मनुष्य अपना हित भी भूल जाता है। तो ऐसी स्थिति में दूसरों के हित को देखने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसी कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि दोषों में आसक्त व्यक्ति को भी अंधा कहा गया है। उसके बाहरी आंख तो रहती है, परन्तु आत्मज्ञान पर मोह, अज्ञान एवं कषायों का गहरा अवगुण्ठन पड़ा रहने से वह हिताहित को नहीं देख पाता। इसलिए वह पाप कार्य में प्रवृत्त होता है।
'लालप्पमाणे' का अर्थ है-बार-बार प्रवृत्ति करना 'विप्परियासमुवेइ' का अर्थ है-'हितमप्यहितबुद्धयाऽधिष्ठत्यहितं च हितबुद्धयेति' अर्थात् हित के कार्य को अहितकर एवं अहित के कार्य को हितप्रद समझना। इसे बुद्धि की विपरीतता भी कहते हैं। 'पुढो वयं पकुब्वइ, पृथग्-विभिन्नं व्रतं करोति यदि वा-का तात्पर्य