Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन : लोकविजय
षष्ठ उद्देशक
पांचवें उद्देशक में यह बताया गया है कि संयम का सम्यक्तया परिपालन करने के लिए मुनि आहार आदि का ग्रहण तो करे, परन्तु उसमें आसक्त नहीं बने। प्रस्तुत उद्देशक में भी मुख्यतया इसी बात का वर्णन किया गया है कि मुनि को आहार आदि में मूर्छा भाव नहीं रखना चाहिए। प्रस्तुत उद्देशक का प्रथम सूत्र इस प्रकार निम्नोक्त है
मूलम्-से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय तम्हा पावकम्म नेव कुज्जा, न कारवेज्जा॥97॥
छाया-स तत् संबुद्धयमानः आदानीयं समुत्थाय तस्मात् पाप कर्म नैव कुर्यात् न कारयेत्।
पदार्थ-से-वह। तं-उस चिकित्सा के फल को। संबुज्झमाणे-जानता .. हुआ। आयाणीयं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र को स्वीकार करे। समुट्ठाय-संयम साधना में सावधान हो कर। तम्हा-इसलिए। पाव कम्म-पाप कर्म को। नेव कुज्जा-न स्वयं करे; और न। कारवेज्जा-न अन्य से करावे।
मूलार्थ-वह मुनि चिकित्सा के फल को जानता हुआ ज्ञान, दर्शन और चारित्र को स्वीकार करके, सावधानी पूर्वक संयम का परिपालन करे, किन्तु न तो स्वयं पाप कर्म में प्रवृत्ति करे और न अन्य को पाप कर्म में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित करे। हिन्दी-विवेचन
पंचम उद्देशक के अन्तिम सूत्र में यह बता आए हैं कि काम एवं व्याधि, चिकित्सा अनेक दोषों से युक्त है। उसमें अनेक प्राणियों की हिंसा होती है और उससे साधु जीवन में अनेक दोषों के प्रविष्ट होने की संभावना रहती है। अतः साधु को उसके दुष्परिणाम को जानकर ज्ञान, दर्शन और चारित्र में प्रवृत्ति करते हुए समस्त पाप