Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अथवा उसी विचार के पुनः पुनः आने पर उस क्रोध, स्वरूप, उसे किसी भी प्रकार से हानि पहुँचाने हेतु संकल्प करना व्यतिक्रम । मन-ही-मन उस कार्य को सम्पन्न करने हेतु संकल्प करना, सामग्री जुटाना अतिचार; मन के द्वारा उस कार्य को सम्पन्न कर. लेना, उस व्यक्ति को मन-ही-मन हानि पहुँचा देना अनाचार | इसमें भी सबसे शक्तिशाली है मन, सबसे अधिक कर्म-बन्धन मन के द्वारा होता है । काया और वचन के पीछे भी अन्ततः मूल कारण है मन ।
420
मन के इस जाल से बचने के लिए, मन के द्वारा अतिचार और अनाचारों से विमुक्त होने के लिए मन में जब भी कोई इच्छा जागे, विचार आये तो उसका प्रतिलेखन करना, अर्थात् अवलोकन करना । यह अवलोकन करना कभी-कभी, तीव्र मूर्च्छा और मोह के समय कठिन प्रतीत होता है । उस समय प्रभु के प्रति, शरण एवं प्रार्थना का भाव मैं आपकी शरण आया हूँ । मुझे इस मूर्च्छा से बाहर निकालो। इस प्रकार प्रार्थना - स्तुति, सत्संग सभी का धीरे-धीरे असर होता है ।
इस प्रकार तीनों योगों में चारों की अवस्थाएं हो सकती हैं, वह भी तीन रूप से। करना-कराना और अनुमोदना । अनुमोदना का अर्थ - होता है - समणुजाणाति, अर्थात् उसको सम्यक् जानना। अच्छा है ऐसा होता रहे। अच्छा है वह ऐसा करता रहे। इस तरह किसी भी कार्य को, बात को सम्यक् जानना मन से, वचन से बोलकर और काया से 1
कर्मों का आगमन
जैसे ही किसी भी प्रकार का संकल्प या आत्मपरिणाम जागता है, उस परिणाम से आत्मप्रदेशों में प्रकम्पन होता है । उस प्रकम्पन से उस आकाश प्रदेश में रही हुई कर्म वर्गणाएँ, आत्म प्रदेशों की ओर आकृष्ट होती हैं । तदनन्तर परिणाम और इसके अनुसार स्थिति और रस-बन्ध होता है ।
अतिक्रम से अनाचार तो किसी भी कर्म बन्धन की चार अवस्थाएं हैं । फिर वह कर्म पाप हो या पुण्य हो, ये चारों ही अवस्थाएं होती हैं। सबसे हल्का कर्म बन्धन न्यूनतम, अतिक्रम सबसे भारी कर्म बन्धन, अधिकतम अनाचार । कर्मों का आगमन और बन्धन तो अतिक्रम से ही चालू हो जाता है । फिर आगे जैसा रस होगा, उस प्रकार कर्म अवस्थाएं होती हैं ।
1