Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5
और रूप के गर्व में देव न होते हुए भी अपने आपको देव तुल्य मान कर भोगों में आसक्त रहता है, परिणामस्वरूप विभिन्न वेदनाओं एवं चिन्ताओं का संवेदन करता है। इस बात को 'अट्टमेयं तु पेहाए' पद से व्यक्त किया गया है। अतः भोगों की शारीरिक एवं मानसिक पीड़ाओं को देखकर मुमुक्षु पुरुष को उनमें अपने मन को नहीं लगाना चाहिए।
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अब सूत्रकार प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं
मूलम् - से तं जाणह जमहं बेमि, तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छित्ता भित्ता लुम्पइत्ता विलुम्पइत्ता उद्दवइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे, जस्सवि य णं करेइ, अलं बालस्य संगेणं, जे वा से कारइ बाले, न एवं अणगारस्स जायइ, त्तिबेमि॥96॥
छाया - तत्तद् जानीत यदहं ब्रवीमि चिकित्सां ( काम चिकित्सा) पण्डितः प्रवदन् स हन्ता, छेत्ता भेत्ता, लुम्पयिता विलुम्पयिता, अप्रदावयिता अकृतं करिष्ये इति मन्यमानः यस्यापि च यत् करोति अलं बालस्य संगेन या वो एतत् कारयति बालः न एवमनगारस्य जायते इति ब्रवीमि ।
पदार्थ–से—वह। तं-अतः । जं - तो । अहं - मैं । बेमि - कहता हूँ, उसको । जाणह - जानो । पंडिए - पांडित्याभिमानी जन । तेइच्छं - कामचिकित्सा को । पवयमाणे-कहता हुआ। से - वह फिर । हंता - जीवों का हनन करता है । छित्ता-छेदन करता है। भित्ता-भेदन करता है। लुंपइत्ता - लुम्पन करता है । विलुम्पइत्ताविलुम्पन करता है । उद्दवइत्ता - प्राणों का नाश करता है । अकंड - अकृत कार्य । करिस्सामित्ति - मैं करूंगा इस प्रकार । मन्नमाणे - मानता हुआ । जस्सवि - जिसकी भी । करे - काम चिकित्सा करता है । अपि - अपनी तथा अन्य और दोनों की करता है, ऐसा जानना । च और णं - का अर्थ पूर्व की भांति समझना । अलं बालस्स संगेणं - बालक के संग से अलं पर्याप्त है अर्थात् उसका संग नहीं करना चाहिए। वा - अथवा । से - वह । बाले - बाल अज्ञानी जन जो । करेइ - काम चिकित्सा करवाता है, उससे भी। अलं - बस । एवं - इस प्रकार की क्रियाओं का अनुशासन करना। अणगारस्स-अनगार साधु को । न- नहीं । जायइ-कल्पता है । त्तिबेमि - इस प्रकार मैं कहता हूँ।
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