Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5
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वह अपनी साधना नहीं कर सकेगा और इसके कारण गृहस्थों से घनिष्ठ परिचय बढ़ने से अन्य दोषों में प्रवृत्ति होना भी सम्भव है। इसलिए साधक को काम एवं व्याधि चिकित्सा में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए और न ऐसी चिकित्सा करने वाले बाल-अज्ञानी व्यक्तियों का संसर्ग ही करना चाहिए।
यह प्रश्न हो सकता है कि अपने शरीर में काम की पीड़ा पीड़ित करने लगे या रोग उत्पन्न हो जाए उस समय क्या करे? काम की चिकित्सा के लिए वह काम शास्त्र में प्रयुक्त किसी भी प्रयोग का सेवन न करे। क्योंकि उससे काम व्याधि को उत्तेजना मिलती है, रोग उपशांत न होकर अधिक बढ़ता है। उसके लिए आगमों में बताई गई. तप, आतापना, स्वाध्याय, ध्यान एवं सेवा-शुश्रूषा की विधि को स्वीकार करके काम-वासना पर विजय प्राप्त करे, अर्थात् काम के मूल मोह को उन्मूलन करने का प्रयत्न करे। ___ रोग.को उपशांत करने के लिए साधु अपनी मर्यादा के अनुसार चिकित्सा कर भी सकता है या दूसर से करवा भी सकता है। उसके लिए सावद्यऔषध के त्याग का विधान है, निर्दोष औषध ग्रहण कर सकता है।
इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में यह बताया गया है कि साधु को सदोष आहार एवं वस्त्र-पात्र, स्थानादि को स्वीकार नहीं करना चाहिए और उक्त निर्दोष वस्तुओं में परिमाण-मर्यादा का ज्ञान होना चाहिए, अर्थात् उक्त वस्तुओं को मर्यादा से अधिक न लिया जाए और उनमें आसक्ति एवं ममत्व भाव नहीं रखे। इसके बाद काम-वासना का सर्वथा परित्याग करे। जिनके संसर्ग से काम की वासना एवं हिंसा की प्रवृत्ति के भावों को उत्तेजना मिलने की संभावना हो, उनका संसर्ग भी नहीं करना चाहिए। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि साधक को आहार, उपधि सम्बन्धी सदोषता आसक्ति एवं भोगेच्छा का सर्वथा त्याग करके निर्विकार एवं निर्दोष भाव से संयम-साधना में संलग्न रहना चाहिए। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् ही समझें।
॥ पंचम उद्देशक समाप्त ॥