Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 5
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अप्पाणं-अपनी आत्मा को। आवायए-स्थापन न करे। अर्थात् ज्ञान आदि के मार्ग से आत्मा को प्रतिकूल न करे और अज्ञान, अविरति, मिथ्यादर्शनादि के अनुकूल न करे, किन्तु। कासंकासे यह कार्य मैंने कर लिया है और यह मैं करूंगा। खलु-निश्चय। अयं-यह। पुरिसे-पुरुष शांति का अनुभव नहीं कर सकता, अपितु वह पुरुष। बहुमाई-बहुत माया। कडेण-करने से। मूढे-मूढ़ हो जाता है। पुणो-फिर। तं-वह लोभानुष्ठान। करेइ-करता है तथा। लोहं-लोभ। करेइ-करता है और जिससे। अप्पणो बेरं-आत्मा के साथ वैर भाव। वड्ढेइ-बढ़ता है। जमिणं-जिससे यह। परिकहिज्जइ-कहा जाता हैं, कि। च-और एव-शब्द पूर्ववत् जानने। इमस्स-इस शरीर की। पडिबूहणाए-वृद्धि के लिए, वह पूर्वोक्त क्रियायें करता है। य-और। अमराए-देव के समान आचरण करता है। महासड्ढी-काम भोगों में अत्यन्त श्रद्धा-अभिलाषा रखने वाला। एयं-यह। तु-वितर्क अर्थ में है। अट्ठ-काम-भोग आर्त ध्यान का मुख्य कारण हैं, अतः। पेहाए यह देखकर, काम-भोगों से निवृत्त होना चाहिए। किन्तु जो लोग कामभोगों से निवृत नहीं होते, अब उनके विषय में कहते हैं। अप्परिण्णाय-काम-भोगों के विपाक को न जानने से अर्थात् ज्ञ और प्रत्याख्यान परिज्ञा से तद्विषयक सम्यक् बोध को प्राप्त न करने से। कंदइ-वह कामी पुरुष अनेक प्रकार से आक्रोश करता है। शोक-सन्ताप को प्राप्त होता है।
मूलार्थ-वह बुद्धिमान् साधु मुख की लार को चाटने वाले बाल की भांति वमन किए-त्यागे हुए काम-भोगों को फिर से भोगने की इच्छा न करे तथा अपने आत्मा को प्रतिकूल मार्ग में न ले जाए, अर्थात् ज्ञान से विपरीत दिशा में न ले जाए। मैंने यह काम कर लिया है और यह काम मैं करूंगा, इस प्रकार की चिन्ता करने वाला पुरुष कभी भी शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता। वह अत्यन्त मायावी होने से अधिक छल-कपट करने के कारण मूर्ख हो जाता है। फिर लोभ करता है और अपनी आत्मा के साथ वैर को बढ़ाता है, जिससे ऐसा कहा जाता है कि इस शरीर की वृद्धि के लिए आरम्भ करता हुआ अपने आत्मा को देवों के समान मानता है, तथा विषय भोगों में आसक्त होने के कारण, वह आर्तध्यान के वश होकर अनेक प्रकार की चिन्ताओं से आवृत्त हो जाता है। हे शिष्य! तू इस