Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
- यह ठीक है कि 'ॐ' शब्द का प्रयोग वैदिक परम्परा में होता रहा है। जैन आगमों में इसका साधना के रूप में प्रयोग नहीं हुआ। परन्तु जैन परम्परा में आचार्यों ने इसे स्वीकार किया है। और उक्त शब्द को अपनी संस्कृति एवं सिद्धांत के अनुरूप ढाल लिया। तब से जैन संस्कृति में भी इसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ____ निष्कर्ष यह निकला कि जो अपने ज्ञान से या सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित श्रुतज्ञान. से तीन लोक के स्वरूप एवं कर्मों के फल तथा काम-भोग के दुष्परिणाम को जानकर भोगों का सर्वथा परित्याग कर देता है, वास्तव में वह वीर है, प्रशंसा के योग्य है और वह सर्व कर्म बन्धन से मुक्त बनता है और दूसरों को भी मुक्ति का पथ बताता है।
इस प्रकार अशुचि भावना के द्वारा साधक भोगों से निवृत्त होता है। उसके बाद अर्थात् काम-वासना से निवृत्त होने के पश्चात् साधक को क्या करना चाहिए? अपनी साधना को किस प्रकार गति-प्रगति देनी चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं___ मूलम्-से मइमं परिन्नाय मा य हु लालं पच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए, कासंकासे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई कडेण मूढे, पुणो तं करेइ लोहं वेरं वड्ढेइ अप्पणो, जमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चेव पडिबूहणयाए, अमराय महासड्डी अट्टमेयं तु पेहाए अपरिण्णाए कंदइ॥95॥
छाया-स मतिमान् परिज्ञान मा च लाला प्रत्याशी मा तेषु तिरश्चीनमात्मानमापादयेत, अकार्षं करिष्ये खलु अयं पुरुषः बहुमायी कृतेन मूढ़ पुनस्तत् करोति लोभं वैरं वर्द्धते आत्मनः यदिदं परिकथ्यते अस्य चैव परिबृंहणार्थं (अमरायमाणः) महाश्रद्धी, आर्तमेतं (अमरायमाणं) तु प्रेक्ष्यापरिज्ञाय क्रन्दते।
पदार्थ-से-वह। मइम-मतिमान्। परिण्णाय-परिज्ञात-जानकर। यसमुच्चय अर्थ में। ह-वाक्यालंकार अर्थ में है। लालं-मुख की लाल को। मा-मत। पच्चासी-प्रत्याश न करे, अर्थात् छोड़े हुए काम-भोगों को बालक की लारवत् फिर से सेवन न करे। मा-मत। तेसु-उन अव्रतों में। तिरिच्छं-प्रतिकूल भाव रूप से।