Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
स्वरूप को भली-भांति जानकर काम-भोगों की आशा का परित्याग कर ? तथा जिन जीवों ने काम-भोगों की वास्तविकता को नहीं जाना, अर्थात् उनको तुच्छ, निस्सार और अनर्थकारी जानकर त्याग नहीं किया है, वे उनकी अप्राप्ति से तथा प्राप्त होकर नष्ट हो जाने से निरन्तर शोक और सन्ताप का ही अनुभव करते हैं! हिन्दी - विवेचन
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पूर्व सूत्र में अशुचि भावना के द्वारा त्यागपथ पर गति करने का आदेश दिया गया है और प्रस्तुत सूत्र में उस पथ पर दृढ़ता के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है कि साधक को त्यागे हुए भोगों को फिर से प्राप्त करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। इसके लिए बालचेष्टा का बहुत ही सुन्दर उदाहरण दिया गया है। जैसे अबोध बालक अपनी गिरती हुई लार को फिर से मुंह में लेकर चूसने लगता है। इस प्रकार प्रबुद्ध साधक त्यागे हुए भोगों की लार को फिर से आस्वादन करने की कामना भी न करे । और ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के पथ पर गतिशील आत्मा को विपरीत दिशा में न देखने दे, अर्थात् अपने मन को विषय-वासना एवं अव्रत आदि की ओर न दौड़ने दे। क्योंकि इच्छित भोग कभी पूरे नहीं होते और जो प्राप्त हुए हैं, उनका भी वियोग होता रहता है। इस प्रकार आशा की अपूर्ति एवं प्राप्त के वियोग
कामी व्यक्ति का मन सदा शोक एवं चिन्तना से सन्तप्त रहता है । उसे विषयों की तृष्णा एवं आसक्ति से इस जीवन में विभिन्न दुःख उठाने पड़ते हैं और परलोक में भी आत्मा दुःख के महागर्त में गिरती है । अतः साधक को भोगों में आसक्त होने वाले प्राणियों की स्थिति को देखकर उनसे सदा दूर रहना चाहिए ।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त “तिरिच्छमप्पाणमावायए - तिरश्चीनमात्मानमापादयेः” पाठ का तात्पर्य यह है-कि विचारशील पुरुष अविरति, मिथ्यादर्शन आदि दोषों में अपनी आत्मा को नहीं लगावे । परन्तु उसे ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की ओर मोड़े और निरन्तर उसी साधना में संलग्न रहे जिससे शीघ्र ही कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होकर निर्वाण पद को पा सके ।
‘अमराए” पद का अर्थ है–“अमरायतेऽनमरः सन् द्रव्ययौवनप्रभुत्वरूपावसतोमर इवाचरति अमरायते” अर्थात् जो व्यक्ति अपने धन, यौवन, अधिकार