Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी-विवेचन
यह सूर्य के उजाले की तरह स्पष्ट है कि सम्यग्-ज्ञान से रहित विषयासक्त प्राणी कर्मजन्य फल को नहीं जानते हैं। अतः वे तप, संयम, नियम आदि पर विश्वास नहीं करके, भौतिक सुख-साधनों में आसक्त रहते हैं। और रात-दिन खेत-मकान, वस्त्र, स्त्री आदि भोगोपभोग साधनों में ही लिप्त रहते हैं और उन्हीं में सुख की अनुभूति करते हुए विपरीत बुद्धि को प्राप्त होते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘हओवहए भवइ' शब्द का अर्थ है-ये विषयासक्त प्राणी विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक रोगों से, दुःखों से हत-पीड़ित होते हैं। और दूसरे व्यक्तियों के द्वारा तिरस्कृत एवं अपमानित होने से उपहत-विशेष पीड़ित होते हैं। या उच्च गोत्र के अभिमान से हत होते हैं और नीच गोत्र में तिरस्कार का संवेदन करते हुए उपहत होते हैं। इस प्रकार ये प्रमादी प्राणी विषयों में आसक्त होकर जन्म-मरण प्रवाह में प्रवहमान रहते हैं।
विषयों में अत्यधिक ममता-मूर्छा के कारण उसके विचारों में विपरीतता आ जाती है। इसीलिए कहा गया है कि वह 'विप्परियासमुवेइ' अर्थात् विपरीतता को प्राप्त होता है। तत्त्व में अतत्त्व और अतत्त्व में तत्त्व बुद्धि रखने का नाम विपर्यास है। यही विपरीत-विचारणा आत्मा को संसार में परिभ्रमण कराती है। ___ सांसारिक भोगों की पूर्ति धन एवं स्त्री दोनों की प्राप्ति होने पर होती है। धन की प्राप्ति हो परन्तु स्त्री का अभाव हो तो वैषयिक सुख की पूर्ति नहीं हो सकती और वैषयिक सुख का साधन स्त्री तो हो, परन्तु धन का अभाव हो तब भी भोगोपभोग का पूरा आनन्द नहीं आ सकता। क्योंकि भोगेच्छा की पूर्ति के साधनों को जुटाने के लिए धन की अपेक्षा रहती है। अतः विषय-वासना की पूर्ति के लिए दोनों साधन अपेक्षित हैं। सूत्रकार ने यही बात ‘सह हिरण्णेण इत्थियाओ परिगिज्झ' शब्द से अभिव्यक्त की है और साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि विषयासक्त प्राणी भोगों के लिए विभिन्न प्रकार के प्रलाप करते रहते हैं। अर्थात् भोग भोगते हुए भी उन्हें तृप्ति नहीं होती और न वास्तविक सुख की ही अनुभूति होती है। .
अतः साधक को वासना का परित्याग करके आत्मविकास की ओर बढ़ना चाहिए। अब सूत्रकार आत्मसाधना के पथ पर बढ़ने वाले साधकों के विषय में कहते हैं