Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 4
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.पहुंचानी चाहिए। एस-वह। वीरे-वीर व्यक्ति। पसंसिए-इन्द्रादि द्वारा प्रशंसा को प्राप्त करता है। जे–जो। आयाणाए-संयम का पालन करने में। न निविज्जइखेद का अनुभव नहीं करता। न मे देइ-यह गृहस्थ मुझे नहीं देता, यह विचार कर। न कुप्पिज्जा-उस पर क्रोध न करे। थोवं-अल्प। ल«-प्राप्त होने पर। न खिंसए-उस गृहस्थ की निन्दा न करे। पडिसेहिए-प्रतिषेध-इनकार कर देने पर। परिणमिज्जा-उस स्थान से वापस लौट आए। एयं मोणं-इस प्रकार मुनित्व-संयम की। समणुवासिज्जासि-सम्यक्तया आराधना करनी चाहिए। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। ___मूलार्थ-हे मुनि। तू देख कि काम-भोग महाभय के उत्पादक हैं। अतः संयमी को किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। जो व्यक्ति संयम के परिपालन करने में किसी भी तरह खेदानुभव नहीं करता, उसकी इन्द्रादि भी प्रशंसा करते हैं। .. मुनि को कभी कोई गृहस्थ भिक्षा न दे तो उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए। और न अल्प परिमाण में देने पर देनेवाले की निन्दा करनी चाहिए, और गृहस्थ के निषेध कर देने पर मुनि को उसके घर में खड़े नहीं रहना चाहिए, प्रत्युत वहां से वापस आ जाना चाहिए। इस प्रकार मुनित्व-संयम का सम्यक्तया आराधन करना चाहिए। ऐसा मैं कहता हूँ। हिन्दी-विवेचन • भोग का अर्थ केवल काम-वासना एवं मैथुन सेवन ही नहीं है, प्रत्युत भौतिक पदार्थों की आकांक्षा, लालसा मात्र का भोगेच्छा में समावेश किया गया है। अतः इसका तात्पर्य यह है कि पदार्थों में आसक्त होना, ममत्व भाव रखना भोग है और यह लोक कहावत प्रसिद्ध है कि “भोग रोग का घर है।” यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि काम-भोग महाभय के उत्पादक हैं। उनसे वर्तमान जीवन में अनेक रोगों एवं दुःखों का संवेदन करना पड़ता है तथा भविष्य में विभिन्न योनियों में अनेक कष्टों को भोगना पड़ता है। अस्तु आगमों का यह कथन नितान्त सत्य है-“खणमित्त सुक्खा बहु काल दुक्खा" अर्थात् काम-भोग क्षणिक सुख रूप प्रतीत होते हैं, अतः साधक को भोगों में आसक्त नहीं होना चाहिए। यहां तक कि शरीर-निर्वाह के लिए