Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अध्यात्मसार: 4
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में हैं और आपको लगता है कि जो भी मिल रहा है, वह ठीक नहीं है, तब यह धर्म में सन्देह हुआ। लेकिन जब यह शरण और समर्पण हो तो जो मुझे मिल रहा है, वही उचित है। फिर जीवन से न कोई माँग है, न कोई फरियाद। जब तक आपकी कोई-न-कोई शिकायत है, माँग है, तब तक आप समर्पण से शरण में नहीं हैं। मन की पुरानी आदत है पुनः-पुनः सन्देह, पुनः-पुनः शिकायत बस इन्हीं संस्कारों से पार होते जाना, यही साधना है। समर्पण की अपेक्षा शरण अधिक उपयुक्त है। व्यक्ति मोहपूर्वक भी समर्पण कर सकता है। वस्तुतः वह समर्पण नहीं है। समर्पण अर्थात् सम्यक् अर्पण। अर्पण अर्थात् पूरी तरह दे देना। मोहपूर्वक नहीं सम्यक् बोध-पूर्वक, अरिहन्त, सुसाधु व सद्धर्म की धारा में अपने आपको दे देना।
धर्म का किसी से भी विरोध नहीं है। न धन से, न पद से और न प्रतिष्ठा से। जो भी तुम्हारे विकास के लिए आवश्यक होगा, वह मिलेगा। हो सकता है धर्म की शरणं में आने पर धनवान-निर्धन हो जाए, तब फिर क्या कहेंगे? वह निर्धनता उसके लिए जरूरी थी। इस प्रकार जो भी आवश्यक होगा, वही होगा। वह मान भी हो सकता है और अपमान भी, कुछ भी हो सकता है।