Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
से खरीदने वाले का अनुमोदन भी न करे। वह भिक्षु काल-समय का, आत्मबल का, आहारादि के प्रमाण का, संसार में परिभ्रमण के कष्ट का, अवसर का, विनय का ज्ञाता, स्वमत और परमत के स्वरूप का दाता और श्रोताओं के भाव का परिज्ञाता हो और यथासमय क्रियानुष्ठान करने वाला, परिग्रह का त्यागी एवं दुराग्रह से रहित अर्थात् दुष्ट प्रतिज्ञान करने वाला हो। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में साधु-वृत्ति का विवेचन किया गया है। साधु परिग्रह-धन वैभव, मकान, परिवार आदि का सर्वथा त्यागी होता है, अतः वह क्रय-विक्रय की प्रवृत्ति में प्रवृत्त नहीं होता। क्रय-शक्ति की प्रवृत्ति द्रव्य के माध्यम से होती है और मुनि द्रव्य का त्यागी होता है। इसीलिए वह अपने उपयोग में आने वाले आहार, वस्त्र-पात्र आदि किसी भी पदार्थ को न स्वयं खरीदता है और न किसी व्यक्ति को खरीदने के लिए प्रेरित करता है और उसके लिए खरीद कर लाई वस्तु को वह स्वीकार भी नहीं करता है। ‘से न किणे....' इत्यादि पाठ इस बात का संसूचक है। इसका तात्पर्य यह है कि साधु अपनी संयम-साधना में आवश्यक उपकरण आदि को न स्वयं खरीदे, न अन्य व्यक्ति को खरीदने के लिए उपदेश दे और न खरीदते हुए व्यक्ति का समर्थन या अनुमोदन ही करे। .
पूर्व सूत्र में 'निरामगन्धो परिव्वए' पाठ में प्रयुक्त 'निराम और गन्ध' शब्द हनन एवं पचन आदि क्रिया से होने वाली हिंसा का त्रि-करण और त्रि-योग से त्याग करने का उपदेश दिया है और प्रस्तुत सूत्र में क्रय-विक्रय के द्वारा होने वाले दोष का सर्वथा त्रि-करण और त्रियोग से त्याग करने का निर्देश किया है। जैसे आधाकर्म आदि कार्य में हिंसा होती है, उसी प्रकार क्रय-विक्रय की क्रिया भी हिंसा आदि दोष का कारण है। क्योंकि क्रय-विक्रय में पैसे की, धन की आवश्यकता रहती है और पैसे की प्राप्ति हिंसा आदि दोषों के बिना संभव नहीं है। __ अतः हिंसा आदि दोषों के सर्वथा त्यागी मुनि के लिए आधाकर्म एवं क्रय आदि दोषों से युक्त आहार, वस्त्र, पात्र, मकान आदि ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। साधु को पूर्णतया शुद्ध, एषणीय एवं निर्दोष आहार की गवेषणा करनी चाहिए और तद्रूप ही स्वीकार करना चाहिए।