Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध गर्व नहीं करना चाहिए और न मिलने पर खेद नहीं करना चाहिए और अधिक आहार प्राप्त हो जाने पर उसे मर्यादित काल से अर्थात् प्रथम प्रहर में लाया हुआ चतुर्थ प्रहर तक नहीं रखना चाहिए और आगामी दिन में खाने की अभिलाषा से रात को भी संग्रह करके नहीं रखना चाहिए। इससे लालसा एवं तृष्णा की अभिवृद्धि होती है और तृष्णा, आसक्ति या लालसा को ही परिग्रह कहा गया है। अतः साधक को परिग्रह से सदा दूर रहना चाहिए। आहार आदि का संग्रह करके नहीं रखना चाहिए। ___इन वस्त्र आदि पदार्थों पर आसक्ति रखने से परिग्रह का दोष लगता है। इसलिए मुनि को वस्त्र आदि किसी पदार्थ पर मूर्छा या आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। इसी बात का आदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-अन्नहा णं पासए परिहरिज्जा, एस मग्गे आयरिएहिं पवेइए, जहित्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि तिबेमि॥92॥ .
छाया-अन्यथा पश्यकः परिहरेत् एष मार्ग आर्यैः प्रवेदितः यथाऽत्रकुशलः नोपलिम्पयेत् इति ब्रवीमि।
पदार्थ-णं-वाक्यालंकारार्थ में प्रयुक्त हुआ है। अन्नहा-अन्य प्रकार से। पासए-देखता हुआ। परिहरिज्जा-परिग्रह को दूर करे। एस-यह। मग्गो-मार्ग। आयरिएहिं-आर्य तीर्थंकरों द्वारा। पवेइए-प्रतिपादित है। जहित्थ-जो यहां धर्म सामग्री प्राप्त है, उसमें। कुसले-कुशल तत्त्वों का परिज्ञाता। नोबलिंपिज्जासि-अपनी आत्मा पापकर्म से लिप्त न करे। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। __ मूलार्थ-साधु धर्मोपकरणों को अन्यथा बुद्धि से देखे, अर्थात् उनको संयम पालन का साधन समझे, किन्तु उनमें ममत्व बुद्धि न रखे, विवेकी पुरुष शास्त्रोक्त रीति से संयमपालन करे, जिससे उसे पापकर्म बन्ध न हो, प्रत्युत कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष की शीघ्र प्राप्ति हो। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में परिग्रह का स्पष्ट अर्थ व्यक्त किया गया है। यह बताया गया है