Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 3
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परस्सट्ठाए-दूसरों के लिए। कूराई-क्रूर। कम्माइं-कर्म। पकुव्वमाणे-करता हुआ। तेण-उस। दुक्खेण-कर्म विपाक जन्य दुःख से। संमूढ़े-विवेक शून्य होता हुआ। विपरियासमुवेइ-विपर्यास भाव को प्राप्त होता है विकल बुद्धि वाला हो जाता है। हु-निश्चय ही। एयं-यह विषय। मुणिणा-मुनि, तीर्थंकर देव ने। पवेइयं-सम्यक् प्रकार से प्ररूपित किया है कि। एए-ये। अन्यतीर्थी लोग सब ज्ञान और चारित्र से हीन। अणोहंतरा-अनोघन्तर हैं-अर्थात् (इन्हों-ने) संसार सागर को अथवा आठ प्रकार के कर्मों के ओघ को नहीं तरा है। नो य-और ना ही वे। ओह-संसार समुद्र को। तरित्तए-तैरने में समर्थ ही हैं। एए-ये सब। अतीरंगमा-तीर को प्राप्त नहीं कर पाए हैं। नो य-और नांहि हैं। तीरंगमित्तए-तीर
को प्राप्त करने में समर्थ ही है। एए-ये सब। अपारंगमा-पार को प्राप्त नहीं कर • पाए हैं। नो य-और नांहि। पारंगमित्तए-पार को प्राप्त करने में समर्थ ही हैं।
आयाणिज्जं- आदानीय श्रुत-ज्ञान को। आयाय-ग्रहण करके। तमि ठाणे-उस संयम स्थान में। अखेयन्ने-अज्ञानी जीव। न चिट्ठइ-नहीं ठहरता है अपितु। वितहुं-मिथ्या उपदेश को। पप्प-प्राप्त करके। तमि-उस। ठाणंमि-असंयम स्थान में। चिट्ठइ-स्थित रहता है। . मूलार्थ-हे शिष्य! जो मोक्ष के साधक हैं, वे इस असंयत जीवन की इच्छा नहीं रखते हैं। अतः तुम जन्म-मरण के स्वरूप को जानकर संयम मार्ग में दृढ़ होकर चलो।
काल-मुत्यु के आने का कोई समय नियत नहीं है। न जाने कब आ जाए। सब प्राणियों को जीवन प्रिय है, सभी सुख की अभिलाषा रखते हैं, और दुःख सबको प्रतिकूल है, सभी को वध अप्रिय और जीवन प्रिय है, सभी जीवन की कामना करने वाले हैं, सब जीवों को जीवन प्रिय है, असंयम जीवन के आश्रित होकर द्विपद-मनुष्य, दास-दासी आदि और चतुष्पद पशु-गोमहिषी और अश्व आदि को उन-उन कार्यों में नियुक्त करके और इस प्रकार धन का संचय करके उस एकत्रित धन की अल्प अथवा अधिक मात्रा के उपभोग करने में प्राणी मन, वचन
और काय से आसक्त रहता है। किसी समय लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से बहुत-सा धन भोगने के पश्चात् भी उसके पास शेष रह जाता है। किसी समय