Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
आसेवन नहीं करना चाहिए। पास - हे शिष्य ! तू देख | नालं - इन भोगों से तृप्ति नहीं हो सकती। अलं ते एएहिं - इन भोगों का सेवन नहीं करना चाहिए, अर्थात् इनसे सदा दूर रहना चाहिए।
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मूलार्थ - हे धीर पुरुष ! तू भोगों की आशा एवं संकल्प-विकल्प का परित्याग कर दे। जिस धन से भोगोपभोग साधन प्राप्त किए जा सकते हैं, अन्तराय कर्म का उदय होने पर उसी धन से वे साधन प्राप्त नहीं भी हो सकते हैं। जो व्यक्ति मोह एवं अज्ञान से आवृत्त हैं, वे इस बात को नहीं समझते हैं । यह लोक स्त्रियों के मोह से आवृत्त है, पीड़ित है। अतः कामी व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि स्त्रियां भोग का साधन हैं। परन्तु उनका यह कथन मोह के लिए है, मृत्यु के हेतु है, नरक गति में तथा वहां से निकल कर तिर्यंच गति में जाने के लिए है ।
भगवान महावीर ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि स्त्रियों को महामोह का कारण जानकर उनमें प्रमाद का सेवन न करे । और शरीर की विनश्वरता को समझकर प्रमाद से सदा दूर रहना चाहिए। हे शिष्य ! तू इस बात को भली-भांति जान ले कि भोगों से आत्मा की तृप्ति नहीं हो सकती । अतः साधक इनसे 'सदा दूर रहे 1 हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में विषय-भोगों के वास्तविक स्वरूप का वर्णन किया गया है। भोग-विलास को दुःख का कारण बताया गया है। क्योंकि विषय-भोग में प्रवृत्तमान व्यक्ति की इच्छा, आकांक्षा एवं तृष्णा सदा बनी रहती है। वह आकाश की तरह अनन्त है और जीवन सीमित है; इसलिए उसकी पूर्ति होना दुष्कर है। यदि कभी किसी इच्छा-आकांक्षा की कुछ सीमा तक सम्पूर्ति हो भी जाए, तब भी विषयेच्छा, भोगाभिलाषा एवं पदार्थों की तृष्णा के शल्य का कांटा उसके हृदय में सदा चुभता ही रहता है। विशाल भोगोपभोग के साधनों में भी उसे सन्तोष एवं सुख की अनुभूति नहीं होती, अपितु कुछ न कुछ कमी खटकती रहती है, जिसे पूरा करने के लिए वह रात-दिन चिन्तित एवं उदास सा रहता है । फिर भी, वे साधन, वे विषय-भोग उसकी चिन्ता को, वेदना को मिटा नहीं सकते । वे तो वासना की आग को और अधिक प्रज्वलित कर देते हैं । विषय-भोग एक तरह से प्रज्वलित आग में मिट्टी के तेल का काम करते हैं। इससे तृष्णा की ज्वाला सदा बढ़ती रहती है। अतः साधक को