Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अन्तराय कर्म के उदय से अथवा भाग्य के क्षय हो जाने पर उस संचित धन को उसके सगे-सम्बन्धी आपस में बांट लेते हैं, चोर चुरा लेते हैं, राजा लूट लेता है, व्यापार अथवा अन्य प्रकार से उसका विनाश हो जाता है एवं घर में आग लगने से वह दग्ध हो जाता है। इस प्रकार वह अज्ञानी जीव दूसरों के लिए अत्यन्त क्रूर कर्मों को करता हुआ उस दुःख से मूढ़ होकर विकलता को प्राप्त हो जाता है, तीर्थंकर देव ने ही यह प्रतिपादन किया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से रहित ये सब अन्यतीर्थी लोग संसार समुद्र को न तो तर ही पाए हैं और न तरने में समर्थ ही हैं। तथा ये सब न तो तीर को किनारे को प्राप्त हुए हैं और न प्राप्त करने में समर्थ ही हैं । अतएव ये सब पार नहीं पहुंचे हैं और पार होने में समर्थ भी नहीं हैं । श्रुतज्ञान को धारण करने पर भी अखेदज्ञ, अकुशल जीव संयम स्थान में स्थित नहीं रहता है, अपितु मिथ्या उपदेशों को प्राप्त करके असंयम स्थान में स्थित रहता है।
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हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में साधना के प्रशस्त मार्ग का तथा उसके प्रतिबन्ध कारणों का विवेचन किया गया है। इसके लिए सूत्रकार ने 'ध्रुव' शब्द का प्रयोग किया है। ध्रुव का अर्थ स्थायी होता है और मोक्ष में आत्मा सदैव स्थित रहती है । कर्मबन्धन से मुक्त होने के बाद आत्मा फिर से संसार में नहीं लौटती है । इसलिए मोक्ष को ध्रुव कहा है और इसके विपरीत संसार अध्रुव कहलाता है और इसी कारण सांसारिक वैषयिक सुख भी अस्थिर, क्षणिक एवं अध्रुव कहलाते हैं । अतः मोक्षाभिलाषी साधक क्षणिक, विनश्वर और परिणाम में दुःख रूप विषय-भोगों की आकांक्षा नहीं रखते । इतना ही नहीं, अपितु वे तो प्राप्त भोगों का त्याग करके साधना के पथ पर गतिशील होते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि ये ऊपर से आकर्षक एवं सुहावने प्रतीत होने वाले विषय : सुख आत्मा को पतन के गर्त में गिराने वाले हैं । इसलिए वे उनके प्रलोभन में नहीं फंसते ।
प्रथम तो भौतिक सुख-साधन ही अस्थिर हैं । जो धन-वैभव आज दिखाई दे रहा है, वह कल ही नष्ट हो सकता है और परिक्षीण होने पर उसकी समाप्ति के अनेक कारण उपस्थित हो जाते हैं । कभी परिवार में विभक्त हो जाने के कारण ऐश्वर्य की