Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
लिया। अपने मन-वचन-काया से आप पूरी तरह समर्पित हो गये । अपने आपको पूरी तरह चढ़ा दिया कि अब मैं तुम्हारी शरण में हूँ, मेरा कुछ भी नहीं है । अतः हम वन्दन भले ही किसी को भी करें, लेकिन शरण तो अरिहंतों की ही है ।
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तो क्या हम किसी भी देव - देवी को वन्दन कर सकते हैं? यदि आप यह समझकर करते हैं कि उनमें ये विशेष गुण हैं, उन गुणों के प्रति अनुमोदना है, तब बात अलग है । लेकिन साधारण मनुष्य वन्दन और शरण के अन्तर को समझ नहीं पाता। वह किसी भी देव या देवी के प्रति झुकता है तो वह उसी को शरण मान लेता है। अतः जरूरी नहीं है कि हम हर किसी के सामने जाकर सिर झुकाएँ । हाँ, हमें किसी की निन्दा नहीं करनी है। क्योंकि निन्दा योग्य कोई भी नहीं है। सभी के प्रति अहोभाव और प्रेम रखना, सभी के प्रति मंगल का भाव रखना है, लेकिन शरण तो हमारी एक ही है, अरिहन्त की शरण ।
मूलम् : समिए एयाणुपस्सी, तंजहा- अन्धत्तं, बहिरत्तं, मूयत्तं, काणत्तं, कुणटत्तं, खुज्जत्तं वडभत्तं, सामत्तं, सबलत्तं, सह पमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधाय विरूवरूवे फासे परिसंवेयइ॥ 2/3/79
मूलार्थ : समिति युक्त जीव अर्थात् संयमी पुरुष कर्मविपाक को इस प्रकार देखता है कि संसार में जीवों को अन्धापन, बहरापन, गूंगापन, कानापन, हाथों की वक्रता, वामन रूप, कुबड़ापन, कालापन एवं चितकबरापन आदि की प्राप्ति प्रमाद से होती है । प्रमादी जीव ही विभिन्न योनियों में उत्पन्न होता है और वहाँ अनेक तरह के स्पर्शजन्य दुःखों का संवेदन करता है ।
यहाँ पर समिति के अन्तर्गत गुप्ति का भी समावेश अपने आप हो जाता है क्योंकि बिना गुप्ति के समिति नहीं हो सकती । समिति कहने से गुप्ति अपने आप आ जाती है, क्योंकि गुप्ति होगी तो समिति होगी । मूल साधना है गुप्ति की और जीवन-व्यवहार के लिए आवश्यक है समिति। इस गुप्ति और समिति की समन्वित साधना को साधक एयाणुपस्सी, यह देख लेता है कि ये जो शरीर के रोग हैं ये जो शरीर के दोष हैं, वे सारे प्रमाद जन्य कर्मों के कारण हैं । यह बात वह स्वयं के श्रुतज्ञान के विकास से इन्द्रियातीत अवधि ज्ञान से जान लेता है । महत्त्वपूर्ण है