Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 3
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प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘समिए' शब्द महत्वपूर्ण आदर्श की ओर निर्देश करता है। यह प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि किसी विषय को जानने का काम ज्ञान का है, अर्थात् ज्ञानी व्यक्ति प्रत्येक बात को भली-भांति जान-देख लेता है। फिर यहां ज्ञान युक्त व्यक्ति का निर्देश नहीं करके समिति युक्त व्यक्ति का जो निर्देश किया गया है, उसके पीछे गंभीर भाव अन्तर्निहित है।
समिति आचरण-चारित्र की प्रतीक है और जैन दर्शन की यह मान्यता है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समन्वित साधना से मुक्ति प्राप्त होती है। ज्ञान
और दर्शन सहभावी हैं। दोनों एक साथ रहते हैं, परन्तु चारित्र के संबंध में यह नियम नहीं है। इसलिए ज्ञान के साथ चारित्र की भजना मानी है। इसलिए ज्ञान के साथ चारित्र हो भी सकता और नहीं भी हो सकता है। परन्तु चारित्र के साथ ज्ञान की नियमा मानी है, अर्थात् जहां सम्यक् चारित्र होगा, वहां सम्यक् दर्शन और ज्ञान अवश्य ही होगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि समिति शब्द से ज्ञान और दर्शन का भी स्पष्ट बोध हो जाता है। समिति युक्त व्यक्ति ज्ञान युक्त होता ही है।
ज्ञान विषय का अवलोकन मात्र करता है, आचरण नहीं। और यहां सूत्रकार को केवल विषय का बोध करना ही इष्ट नहीं है, प्रत्युत उस बोध को, ज्ञान को जीवन में क्रियात्मक रूप देने की प्रेरणा देना है। इसलिए सूत्रकार ने ज्ञान युक्त शब्द के स्थान में समिति युक्त शब्द का प्रयोग किया है। सम्यक् प्रकार से आचरण में प्रवृत्तमान व्यक्ति ही कर्मजन्य दोषों का सम्यग् ज्ञान करके उन दोषों से अपने आपको बचा सकता है। वह अपने ज्ञान से इस बात को भली-भांति जान लेता है कि संसार में अंधे, बहिरे मूक, काने, वामन, कुबड़े, विकृत हाथ-पैर वाले, चित्तकबरे, कुष्ट आदि रोगों से पीड़ित व्यक्ति अपने पूर्वभव में किए गए प्रमाद युक्त आचरण का फल पा रहे हैं। अर्थात् प्रमाद के आसेवन से आत्मा विभिन्न योनियों में जन्म लेता है और उक्त विभिन्न प्रकार की शारीरिक विकृतियों एवं स्पर्शजन्य दुःखों का संवेदन करता है। इसलिए संयमी पुरुष को प्रमाद से बचना चाहिए, उसे अपनी साधना में सदा जागरूक रहना चाहिए।
समिति का अर्थ है-विवेक के साथ संयम मार्ग में प्रवृत्त होना और वह पांच