Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 3 से सत्कार-सम्मान प्राप्त होता है, उसे उच्च गोत्र या कुल कह देते हैं और जो तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है, उसे नीच गोत्र या कुल में मान लिया जाता है। आचार्य शीलांक ने भी उच्च और नीच गोत्र की इसी प्रकार व्याख्या की है। उन्होंने लिखा
ता
- “उच्चैर्गोत्रे मानसत्कारार्हे, नीचैर्गोत्रे सर्वलोकावगीते..."
प्रज्ञापना सूत्र के 23 में पद की वृत्ति में आचार्य मलयगिरि सूरि गोत्र कर्म के विषय में इस प्रकार लिखते हैं- .
"गूयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैर्यत् तद्गोत्रम्-उच्चनीचकुलोत्पत्तिलक्षणः पर्याय विशेषः तदविपाकवेद्यं. कर्मापि गोत्रं, कार्यकारणोपचाराद् यद्धा कर्मणोपादानविवक्षा गूयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् कर्मणः उदयात् (तद्) गोत्रम्।” _ 'गोत्र' पद में गो+त्र' दो शब्द हैं। 'गो' का अर्थ वाणी भी होता है और 'त्र' का अर्थ है, त्राण करना.। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वाणी का रक्षण करना गोत्र कहलाता है। वाणी या भाषा उच्च और नीच के भेद से दो प्रकार की है। अतः जो उच्च-श्रेष्ठ वाणी, भाषा या विचार का रक्षण करता है अथवा उसे धारण करता है, वह उच्च गोत्र वाला है और नीच वाणी को प्रश्रय देने वाला नीच गोत्र के नाम से पुकारा जाता है।
हम ऊपर बता आए हैं कि आठ प्रकार के मदों में जाति एवं कुल का मद या अभिमान करने से नीच गोत्र का बन्ध होता है और अभिमान को अभिव्यक्त करने के लिए अन्य शारीरिक चेष्टाओं के साथ वाणी के साधन का भी प्रयोग होता है। भगवान महावीर के विषय में कहा जाता है कि भगवान ऋषभ देव के समवसरण के बाहर त्रिदण्डिक संन्यासी के वेश में साधना करते हुए अपने पिता भरत चक्रवर्ती के मुख से यह सुनकर कि तुम इस अवसर्पिणी काल में मांडलिक राजा वासुदेव एवं अंतिम-24वें तीर्थंकर बनोगे, उस त्रिदण्डिक के मन में अपने कुल का अभिमान उबुद्ध हो गया और वह अभिमान शारीरिक उछल-कूद के साथ वाणी के द्वारा इस प्रकार प्रकट हुआ-“मेरा दादा तीर्थंकर है; मेरा पिता चक्रवर्ती है और मैं मांडलिक राजा, वासुदेव एवं तीर्थंकर बनूंगा। इस प्रकार मेरा कुल सर्वश्रेष्ठ है।” इसीका परिणाम है कि वे अपने अंतिम जन्म में ब्राह्मण कुल में 82 दिन तक गर्भ में रहे।